बुराइयों के लिए हम “ईश्वर के धर्म” को जिम्मेवार नहीं मान सकते – TV9 Bharatvarsh

| Edited By: संयम श्रीवास्तव
Apr 09, 2022 | 8:59 AM
अजान (Azaan) के लिए मस्जिदों में लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल से महाराष्ट्र (Maharashtra) और देश के कुछ अन्य हिस्सों में एक बार फिर विवाद खड़ा हो गया है. राजनीतिक विभाजन के भी गंभीर आयाम देखने को मिल रहे हैं और इसके साथ ही देश एक नाजुक दौर में आ गया है. हर एक दिन धार्मिक आधार पर कोई न कोई विवाद (Religious Dispute) खड़ा हो जाता है. हालात इस हद तक पहुंच गए हैं कि हल्दीराम के उत्पाद पर अरबी विज्ञापन भी सांप्रदायिक विभाजन का मुद्दा बन जाता है. जब से कर्नाटक में हिजाब विवाद शुरू हुआ है तब से मन्दिरों के आसपास मुस्लिमों के दुकान या फिर हलाल मांस के मुद्दे को बार-बार उठाया जा रहा है. नवीनतम विवाद मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकरों पर केंद्रित है. इन सारे विवादों का एक पैटर्न है. यदि बहुसंख्यक समुदाय तेजी से “आक्रामक (मिलिटराइज्ड) रवैया” अपना रहा है तो इसे दूसरे समुदाय की पिछली कार्रवाई की प्रतिक्रिया के रूप में ही देखा जा सकता है.
‘बजरंग बली बनाम अली’ का विवाद पिछले यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान छाया हुआ था. यह विवाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की टिप्पणी के साथ उठा था कि “अगर उनके पास अली है तो हमारे पास बजरंग बली है.” इन दो ऐतिहासिक शख्सियत के बीच कोई तुलना ही नहीं है. दोनों ही अलग-अलग ध्रुव पर खड़े हैं. ये एक सच्चाई है कि देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एक लंबा इतिहास रहा है, लेकिन एक दशक पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि स्थिति इतना विचित्र मोड़ ले लेगी. हम इस्लाम के मूलभूत सिंद्धांत जैसे “ला एकराहा फ़िद्दीन” (इस्लाम में कोई अनिवार्यता या लड़ाई नहीं है) से लेकर “वामा अरसलनाका इल्ला रहमतुल लील अलीमीन” (हमने उसे भेजा तो है लेकिन वो पूरी दुनिया के लिए शांति दूत बनेगा) को भूल गए हैं. आज दुनिया भर में इस्लामी समुदाय चौराहे पर है. इसका एक लंबा इतिहास है.
पैगंबर की मृत्यु के लगभग 50 साल बाद मुसलमानों की गतिविधियों ने शांति और भाईचारे के इस धर्म को एक युद्धरत मजहब में बदल दिया था. ये एक ऐसा सबक था जो उन्होंने अरब के कुछ हिस्सों में ईसाई धर्म की मौजूदा स्थिति से लिया था. दरअसल, शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं को छोड़कर मुसलमानों ने सीरिया में उम्मैयद राजशाही की ओर रुख किया और इसे “असली इस्लाम” मानने लग गए. यह अब्बासिद काल इस्लामिक मजहब के लिए एक टर्निंग प्वाइंट था जब सरकारी संरक्षण में इस्लामी शिक्षाओं में काफी विकृतियां देखने को मिलने लगी. इसलिए दुनिया भर के इस्लामी समाज में व्याप्त सभी बुराइयों के लिए हम “ईश्वर के धर्म” को जिम्मेवार नहीं मान सकते. दिशाहीन मुसलमान ही इस गलतफहमी के लिए जिम्मेवार है.
एक बार एक प्रमुख इस्लामी विद्वान स्वर्गीय डॉ कल्बे सादिक ने व्यंग्यात्मक रूप से टिप्पणी की थी कि “मुसलमानों के बीच इस्लाम फंस गया है.” मूल मुद्दा यह है कि मुसलमानों ने अपने धर्म को किस बिंदु से आगे बढ़ाया है. अगर हम इस्लामी समाज के इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि यहां काफी विकृतियां भरी हुई हैं जो सदियों से मुस्लिम शासकों के निहित स्वार्थों को ही पूरा करती है. उम्माह के लिए दो इस्लामी धाराएं शुरू हुईं – एक पैगम्बरों के घराने से और दूसरी शासकों के सिंहासन से, जिसमें “धन और बाहुबल” का बोलबाला था.
सातवीं शताब्दी के बाद से शासकों के लिए काम करने वाले मुल्लाओं के फतवे के साथ राज्य प्रायोजित हत्याओं/आतंकवाद को उचित ठहराया जाने लगा. पैगंबर के संदेश को शांतिपूर्वक फैलाने की कोशिश में लगे पैगंबर की संतानों की मुस्लिम शासकों द्वारा हत्या कर दी गई या उन्हें जहर दे दिया गया. ये तथाकथित मुस्लिम शासक पैगंबर के कबीले के सबसे बड़े दुश्मन साबित हुए. 19वीं शताब्दी में अपनी स्थापना के बाद से इस्लाम के इस नए ब्रांड ने मोहम्मद के सौम्य धर्म को विकृत कर दिया है. इबे वहाब के नाम पर ये दर्शन वजूद में तब आया जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद की बैसाखी के सहारे सऊद के परिवार का उदय हो रहा था.
दुर्भाग्य से इस दर्शन ने न केवल धर्म बल्कि इसके दूत की धारणा को इस हद तक विकृत कर दिया है कि आज इस्लाम आतंकवाद से जुड़ा हुआ नजर आता है. हाल के दशकों में इस दर्शन ने पाकिस्तान समेत भारत और अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्रों को अपने चपेट में ले लिया है. इसके परिणामस्वरूप आज चरमपंथ उस स्तर तक पहुंच गया है जहां निर्दोषों की हत्या और सिर काटने जैसे कृत्य को भी ‘इस्लामिक’ करार दिया जाता है. ‘गैर-इस्लामी’ माने जाने वाले प्रतीकों और कलाकृतियों को नष्ट कर दिया गया है. इतना ही नहीं, जो इस्लाम के इस ब्रांड में विश्वास नहीं करते उन्हें “विधर्मी” बता बेरहमी से मारा गए, उनकी मस्जिदों और अन्य धार्मिक स्थानों पर बमबारी की गई और नष्ट कर दिया गया. इन कुकृत्यों को “पैगंबर की परंपरा के अनुसार” बताने की भी कोशिश की जा रही है!
यहां तक कि “मुसलमानों” द्वारा फ्रांस से लेकर यूरोप के अन्य हिस्सों में कार्टूनिस्टों के सर कलम कर देने से लेकर हिंसक विरोध तक को “एक आस्तिक के सच्चे कृत्यों” के रूप में समझाने की कोशिश की गई है! ऐसी स्थिति में निस्संदेह ही पैगंबर के जीवन पर फिर से विचार करने और यह समझने की जरूरत है कि उन्होंने अपने जीवन के जरिए हमें क्या संदेश दिया. क्या मोहम्मद उग्रवाद और जबरदस्ती करने के हिमायती थे? क्या उन्होंने वास्तव में मामूली मामूली बातों पर लोगों को जबरन फांसी दी थी? क्या उन्होंने यही सिखाया कि तलवार सर्वोच्च है? इस्लाम के नए ब्रांड के खतरे से निपटने के लिए जरूरी है कि वे वापस जाएं और ये समझे कि मोहम्मद स्वयं कैसे रहते थे, कैसा व्यवहार करते थे और किस तरह का उपदेश देते थे. कम से कम पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे मुल्कों में इस्लाम के पैगंबर के जीवन को देखने की ये कोशिश वास्तव में बहुत प्रासंगिक है. हाल के वर्षों में ये दोनों देश इस्लामी चरमपंथियों के गढ़ बन गए हैं.
पैगंबर से संबंधित जीवनी लेख, चाहे वे किसी भी विचारधारा के दृष्टिकोण से लिखे गए हों – सुन्नी, शिया, हनफ़ी, सूफ़ी, सलाफ़ी – हमें बताते हैं कि मोहम्मद ने अपने मज़हब का प्रचार कैसे शुरू किया. सबसे पहले उन्होंने अपने निकटतम परिवार से बात की और फिर अपने चाचा अबू तालिब को कहा कि अपने कबीले को रात के खाने के लिए इकट्ठा किया जाए. जब उनके कबीले के लोग इकठ्ठा हुए तो क्या उन्होंने उनसे जबरदस्ती की? नहीं. उन्होंने उनसे पूछा: क्या उन्होंने उन्हें (मोहम्मद को) अपने व्यवहार में ईमानदार पाया है? क्या उन्होंने उन्हें सच्चा पाया है? जब सभी ने शपथ ली कि वे उस पर विश्वास करते हैं तो उन्होंने अपना संदेश दिया. सारे तथ्य साफ हैं कि लगभग पूरी सभा ने मना कर दिया था. और यह सिलसिला तीन दिनों तक चलता रहा. अबू तालिब भोजन की व्यवस्था करते और कबीले के लोगों को आमंत्रित करते थे.
यहां तक कि जब उत्पीड़न शुरू हुआ तो मोहम्मद ने क्या किया? एक महिला ने उन पर कचरा फेंकने की आदत बना ली. एक दिन उसने ऐसा नहीं किया और मोहम्मद को सूचित किया गया कि वह बीमार है. वे उनसे मिलने गए. उसे डांटने या उसकी बीमारी का फायदा उठाने के बजाय उन्होंने उसे अपना प्यार दिखाया. पैगंबर के जीवन रेखाचित्र हमें उन कुछ लोगों के बारे में क्या बताते हैं जो उस पर विश्वास करते थे? क्या उन्होंने विरोधियों और इनकार करने वालों से लड़ने के लिए हथियार उठाए? नहीं. दुश्मन को भ्रमित करने के लिए अबू तालिब अपने बेटों को मोहम्मद के बिस्तर पर सुलाते रहे. और जब तक कि मोहम्मद “भागते” अबु तालिब ने शहर छोड़ने से पहले मक्का के लोगों का सारा सामान वापस कर दिया.
उनके जीवन के इतिहास हमें बताते हैं कि उन्होंने अंततः 11 लड़ाइयां लड़ीं. ये लड़ाइयां ज्यादातर काफिरों और कुछ यहूदियों के खिलाफ थीं. लेकिन वे सभी लड़ाइयां आत्मरक्षा में लड़ी गई. किसी भी लड़ाई को उन्होंने शुरू नहीं किया था. बतौर एक विजेता उन्होंने यहूदियों के साथ एक संधि की: आज इसे मदीना के संविधान के रूप में जाना जाता है. सभी इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि यह मानवाधिकारों का पहला चार्टर था. जब यहूदियों ने बताया कि उस जमीन पर जबरन एक मस्जिद बनाई गई थी जो मुसलमानों की नहीं थी , तो पैगंबर ने क्या किया? उन्होंने इसे तत्काल तोड़ने का आदेश दिया.
क्या मोहम्मद ने अपने जीवनकाल में कभी किसी पर आक्रमण किया था? उसने शांति के खत और निमंत्रण पत्र के साथ दूत भेजे. उनके जीवनकाल में कोई “फतह” नहीं हुई. मुसलमानों का साम्राज्यवादी व्यवहार उनके उत्तराधिकारियों के अधीन ही प्रकट हुआ था. मोहम्मद का इस्लाम उमय्यद, अब्बासिड्स, फातिमिड्स और बाद में ओटोमन्स द्वारा प्रचारित किए गए इस्लाम से बिल्कुल अलग था. पैगंबर की मृत्यु के बाद उनके तथाकथित राजनीतिक उत्तराधिकारियों ने एक साम्राज्यवादी इस्लाम का प्रचार किया. आज के वहाबी इस्लाम को निरंकुश राजनीतिक इस्लाम के तौर पर देखा जा सकता है.
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