उन गुमनाम भारतीय औरतों की कहानी जिन्होंने ब्रिटेन की भावी पीढ़ियों की परवरिश की – BBC हिंदी

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आयाओं के इस घर में सैकड़ों बेसहारा महिलाएं रहा करती थीं
ब्रितानी साम्राज्य के चढ़ते दिनों में भारत और एशिया के दूसरे हिस्सों से बच्चों के लालन-पालन के लिए हज़ारों औरतों को लंदन लाया गया था- लेकिन इनमें से बहुत सी 'आया' को बाद में बेसहारा उनके हाल पर छोड़ दिया गया था. अब, उस मकान को जहां ये रहा करती थीं, 'ब्लू प्लाक' से स्मारक बनाया जा रहा है.
'ब्लू प्लाक' स्कीम यूनाइटेड किंगडम की चैरिटी संस्था 'इंग्लिश हेरिटेज' चलाती है और इस योजना में वो लंदन के उन भवनों को सहेजती है जो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक हस्तियों से गहरा संबंध रखते हों.
महात्मा गांधी और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जैसे स्वतंत्रता सेनानियों और भारतीय संविधान के निर्माता भीमराव आंबेडकर समेत अनेक भारतीयों को प्लाक से याद किया गया है. साल 2020 में द्वितीय विश्व युद्ध की जासूस नूर इनायत ख़ान पहली भारतीय बनीं जिन्हें 'ब्लू प्लाक' से सम्मानित किया गया.
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पूर्वी लंदन के हैकनी में 26 किंग एडवर्ड्स रोड स्थित आया घर को दिया जा रहा सम्मान फरहाना मामूजी के अभियान से मिला है. तीस वर्षीय फरहाना भारतीय मूल की हैं जिन्होंने पहली बार इस जगह के बारे में बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री में सुना था जिसमें इसका संक्षिप्त उल्लेख किया गया था.
ये इमारत उन सैकड़ों बेसहारा आया और आमा के घर के तौर पर जानी जाती है. आमा चीनी दाई को कहा जाता है.
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फरहाना मामूजी और उन इतिहासकारों को, जिन्होंने इन दाइयों की भूमिका और उनके योगदान पर शोध किए हैं, अब उम्मीद जगी है कि इस सम्मान से उन भुला दी गईं महिलाओं की याद ताज़ा होगी.
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इनमें से अधिकतर महिलाएं भारत, चीन, हांग कांग, ब्रितानी सीलोन- अब श्रीलंका, बर्मा- अब म्यांमार, मलेशिया और जावा- इंडोनिशया के एक हिस्से से आई थीं.
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अक्सर परिवार बच्चों की देखरेख के लिए आया को अपने साथ ब्रिटेन ले आते थे
इतिहासकार और 'एशियंस इन ब्रिटेनः 400 ईयर्स आफ हिस्ट्री' की लेखिका रोज़ीना विसराम कहती हैं, "आया और आमा असल में घरेलू कामगार थीं और औपनिवेशिक भारत में ब्रितानी परिवारों के लिए मज़बूत सहारा थीं. वे बच्चों की देखभाल करती थीं, उनका मनोरंजन करती थीं, उन्हें कहानियां सुनाती थीं, और पालना झुलाकर सुलाती थीं."
वे कहती हैं, "आमतौर पर उन्हें परिवार अपने खर्चे पर वापसी का टिकट भी देते थे."
लेकिन सब इतनी किस्मतवाली नहीं होती थीं- कई को काम से निकाल दिया जाता था और उन्हें नौकरी पर रखने वाले उन्हें पैसे या घर वापसी का टिकट दिए बिना बेसहारा छोड़ देते थे.
उनमें से बहुत सी इसलिए वहां रहने को मजबूर होती थीं कि वापसी की यात्रा में उनका साथ देने के लिए कोई परिवार नहीं मिलता था.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिस्टल में साहित्य और प्रवासन के लेक्चरर फ्लोरियन स्टैडलर का कहना है, "इसके कारण आया को अपने हाल पर रहना पड़ता था."
फ्लोरियन स्टैडलर ने इस विषय पर विसराम के साथ काम किया है.
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1858 की इस तस्वीर में भारत की आया एक बच्चे की साथ नज़र आ रही है
वे कहते हैं कि ये औरतें अक्सर स्थानीय समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर घर वापसी के लिए मदद की गुहार लगाती थीं- इनमें से कई गंदे ठिकानों में रहने को मजबूर होती थीं.
"और जब उनके पास पैसे खत्म हो जाते थे तो उन्हें इन सस्ती जगहों से भी निकाल बाहर कर दिया जाता था. कइयों को भारत लौटने के लिए भीख मांगने को मजबूर होना पड़ा था."
ओपन यूनिवर्सिटी के 'मेकिंग ब्रिटेन' रिसर्च प्रोजेक्ट के अनुसार, "ऐसा अनुमान है कि आया घर एल्डगेट में 1825 में बना था."
ये एलिज़ाबेथ रॉजर्स नाम की महिला ने बनाया था. उनके निधन (किस वर्ष में हुआ, यह स्पष्ट नहीं) के बाद यह घर एक जोड़े ने ले लिया था जिसने इसे आया के आवास के तौर पर बनाया.
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वे इस घर को एक रोज़गार केंद्र की तरह चलाते थे, और परिवार यहां दाइयों की तलाश में आते थे.
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जैसे-जैसे साम्राज्य का सूरज चढ़ता गया, इंग्लैंड और भारत के बीच नियमित यात्राएं होने लगीं- और इसी के साथ ब्रिटेन आने वाली दाइयों की संख्या भी बढ़ती गई.
डॉक्टर विसराम के अनुसार, "हर साल यहाँ 200 तक आया ठहरती थीं. कुछ तो चंद दिनों के लिए ठहरतीं और कुछ महीनों तक."
आया को अपने ठहरने का खर्च नहीं देना होता था. डॉक्टर विसराम बताती हैं, "स्थानीय चर्चों से चंदा मिलता था. ऐसी दाइयां भी थीं जिनके पास वापसी का टिकट तो था लेकिन पैसों की कमी से या कोई साथ जाने वाला नहीं मिलने के कारण वे घर नहीं लौट सकीं- ऐसे मामलों में आया घर की मेट्रॅन उस टिकट को किसी ऐसे परिवार के हाथों बेच देती थीं जिन्हें भारत की समुद्री यात्रा पर उनकी सेवाओं की ज़रूरत होती थी जिससे कुछ पैसे जमा हो जाते थे."
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26 किंग एडवर्ड्स रोड स्थित वह घर जो ईस्ट इंग्लैंड के हैकनी में है
लेकिन आया घर सिर्फ एक हॉस्टल या शरण की जगह नहीं थी.
डॉक्टर स्टैडलर कहते हैं कि इनका एक खास मक़सद इन आया को ईसाई बनाने की कोशिश करना भी था.
उन्होंने कहा, "लेकिन हमें सही से पता नहीं कि इन दाइयों में से कितनी धर्म परिवर्तन कर इंग्लैंड में ईसाई बन गईं क्योंकि इसका कोई रिकॉर्ड है नहीं. इस बात का भी कोई दस्तावेज़ नहीं है कि इंग्लैंड में वास्तव में इन्हें ईसाई धर्म अपनाने पर मजबूर किया गया था."
साल 1900 में एक ईसाई समूह 'लंदन सिटी मिशन' ने इस घर को ले लिया. वे पहले तो इसे 26 किंग एडवर्ड्स रोड, हैकनी ले गये और फिर 1921 में 4 किंग्स एडवर्ड्स रोड ले गए.
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बिना तारीख़ वाली एक तस्वीर में दो बच्चों के साथ एक आया
बीसवीं सदी के मध्य में ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के साथ आया की ज़रूरत कम होती गई. 4 किंग एडवर्ड्स रोड के मकान को एक निजी आवास में बदल दिया गया.
फरहाना मामूजी ने 2018 में आया घर के बारे में पहली बार बीबीसी की उस डॉक्यूमेंट्री में सुना जिसका नाम था- 'अ पैसेज टू ब्रिटेन.'
इसमें हैकनी स्थित उस किराया घर की छोटी सी चर्चा थी- मामूजी वहीं पास में रहती थीं.
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"पूर्वी लंदन में रहने वाली एक दक्षिण एशियाई महिला के नाते मुझे इन आया से एक जुड़ाव महसूस हुआ और उनकी अनकही कहानी जानने की इच्छा हुई." ये बताते हुए फरहाना मामूजी कहती हैं कि उन्होंने उस इमारत को देखने का इरादा कर लिया.
"मुझे इस बात पर बहुत गुस्सा आया कि दुनिया भर की अनेक एशियाई महिलाओं के लिए जो जगह इतनी खास थी उसके बारे में बताने के लिए कुछ नहीं था. तब ही मुझे यह भी लगा कि मुझे इसके लिए कुछ करना चाहिए."
इसलिए उन्होंने आया घर प्रोजेक्ट शुरू किया जिसमें लालन-पालन करने वाली दाईयों की कहानी दर्ज की जाती है. उन्होंने इस घर के लिए ब्लू प्लाक दर्जा के लिए भी आवेदन दिया.
मार्च, 2020 में जब वे 'इंग्लिश हेरिटेज' से अपने आवेदन की स्थिति जानने को बेताब थीं तो फरहाना मामूजी ने हैकनी म्यूज़ियम में एक समारोह आयोजित किया जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य के दौर में आया की भूमिका की चर्चा की गई थी.
म्यूज़ियम स्टाफ़ भी अपनी तरफ़ से इस विषय पर रिसर्च कर रहे थे.
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1850 में दो बच्चों के साथ एक भारतीय आया
इस म्यूज़ियम की मैनेजर नीति आचार्य कहती हैं कि उन्होंने "विभिन्न स्रोतों से इस घर में रहने वाले लोगों की पहचान तय करने की कोशिश की. इन स्रोतों में 1878 से 1960 तक यूनाइटेड किंगडम आने वाले और यहां से जाने वाले लोगों की लिस्ट, जनगणना रजिस्टर और लेखागार के स्रोत शामिल थे."
वे कहती हैं, "इन सभी तरह के स्रोतों से मिली छोटी-छोटी जानकारी से वह कहानी बुनने में मदद मिली जिससे एक बड़ी तस्वीर उभरकर सामने आई."
लेकिन यह चुनौती भरा काम था क्योंकि दाइयों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है.
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वे कहती हैं, "अभिलेखागारों में उपलब्ध जानकारी मुख्यतः उन परिवारों के बारे में है जो आया और आमा की सेवा लेते थे और खुद उन औरतों के बारे में नहीं. अक्सर ईसाई नाम के कारण उस औरत की पहचान मिट गई जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था या जिन्हें कोई पारिवारिक नाम दे दिया जाता जैसे आया बर्ड."
फरहाना मामूजी और दूसरों को यह उम्मीद है कि ब्लू प्लाक मिलने से इन भुला दी गई औरतों की चर्चा बढ़ेगी.
वे कहती हैं, "सच बात तो यह है कि ये औरतें इस सम्मान की हक़दार हैं."
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