इतिहास की संकरी गलियों से आने वाली कुछ आवाजें बहुत स्पष्ट और ऊंची सुनाई देती हैं। मुमकिन है कि इन तंग गलियों के कुछ मोहल्लों को ये आवाजें पसंद न आएं लेकिन दूर खड़े होकर, इतिहास को घसीटकर बाहर लाने के दर्द को आप महसूस नहीं कर सकते। ‘द कश्मीर फाइल्स’ कुछ ऐसी ही कहानी है मानो इतिहास के चौड़े दरवाजों में दफन पड़े किस्से चीखकर बाहर आ रहे हों। विवेक अग्निहोत्री 90 के दशक में 4 लाख (अलग-अलग दावों के अनुसार) कश्मीरी पंडितों की बेचैन-परेशान करने वाली मर्मस्पर्शी कहानी सुनाने आए हैं।
फिल्म की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठ रहे हैं पर पंडितों के क्रूर पलायन कांड को जिस प्रभावशाली ढंग से नष्ट किया गया, उसपर भी उपयोगी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। यानी लीक से हटकर बनी फिल्म पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती दे रही है। यह बहस नई नहीं है कि हिंदी फिल्म उद्योग का सांस्कृतिक सिद्धांत विशुद्ध व्यावसायिक है। हम हिंदी सिनेमा में हैप्पी एंडिंग के आदी हैं। द कश्मीर फाइल्स पर यह सिद्धांत लागू नहीं होता पर इस सच्चाई से भी इंकार नहीं कर सकते कि कश्मीरी पंडितों के पलायन की क्रूर त्रासदी हुई थी।
इसपर अब जाकर फिल्म क्यों बनी? यही वैचारिक टकराव का मुद्दा है। 32 सालों से प्रगतिशील फिल्मकारों से यह सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर उन्होंने सेल्यूलाइड की रीलों में इस कहानी को जिंदा क्यों नहीं किया। हमारी निराशा तब और बढ़ जाती है जब गुटों में बंटे फिल्मकार इस त्रासदी को दफन करने की गलियां निकालने लगते हैं। तर्क यह है कि 84 के सिख दंगे, कश्मीरी पंडितों की पलायन त्रासदी पर फिल्म बनेगी तो गंभीर सामाजिक समस्या खड़ी हो सकती है।
इस तर्कहीन, अर्थहीन, नकली धर्मनिरपेक्षता पर क्या आप यकीन करेंगे? कर भी लें तो आपातकाल जैसी महात्रासदी को फिल्म के जरिए बताने में किसको और क्या नुकसान होगा? इस गुणा-भाग का जवाब आजतक नहीं मिलता। कुछ साल पहले जयपुर में फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया से मैंने फिल्मकारों की नैतिक जिम्मेदारी पर सवाल पूछा था। उन्होंने माना था कि कश्मीरी पंडितों और सिख दंगों पर फिल्म न बनाना भी एक त्रासदी की तरह है। यह नहीं होना चाहिए था।
वे भी कोई पुख्ता कहानी नहीं खोज पाए। यह मासूम कबूलनामा आश्चर्य पैदा कर सकता है, पर पूरे फिल्म उद्योग को इतने बड़े बौद्धिक अपराध की जमानत नहीं दे सकता। सवाल यही है कि क्या विद्वान फिल्मकार सियासी कारणों से इन मुद्दों पर फिल्म बनाने का साहस नहीं कर पाए? या ऐसे दर्द के खरीददार नहीं मिलते? एक पत्रकार के तौर पर मैंने कश्मीर फाइल्स भी देखी है और कश्मीर में 15 महीने भी गुजारे हैं। पंडितों के पलायन पर जम्मू की अलग कहानी है, कश्मीर की अलग।
पत्रकारों को फ्रंट पेज की हैडलाइन्स कश्मीर में मिलती हैं, जम्मू में नहीं। जवाहर टनल के उसपार का कश्मीर पत्रकारों को भी लुभाता है और पढ़े लिखे, बुद्धिजीवी, अति प्रगतिशील वर्ग को भी आकर्षित करता है। एक सच है कि 90 के दशक के लाल चौक की कहानी की पटकथाएं भी आलाकमानों ने बदल दी हैं। यहां हर विचारधारा का अपना किस्सा है। दरअसल, उस बेरहम वक्त में क्या घटा, कश्मीर में कभी आपको पूरा सच नहीं मिलेगा। पंडितों के पलायन के इतिहास को काटकर शवों की तरह रावी, चनाब, झेलम, सिंधु में बहा दिया गया है।
जितने शव हैं, उतनी कहानियां भी, उतने ही दर्द भी। पंडितों के सच के इकलौते सबूत जो अब तक बचे हैं, वे हैं शरणार्थी शिविर। जो पहले जम्मू में थे, फिर दिल्ली, अब पूरे देश में उनकी निशानियां हैं। द कश्मीर फाइल्स इन्हीं शिविरों से निकली कहानी है। इस पर हमारा सिनेमा अब तक चुप था। 32 साल बाद चुप्पी हंगामे के साथ टूटी है। और अंत में… सिनेमा जिंदगी का हिस्सा है, अभिव्यक्ति का एक तरीका है।
अगर आपने नाजी शिविरों में यहूदियों पर हुए क्रूर और बर्बर नरसंहार पर बनी फिल्म द शिंडलर्स लिस्ट देखी और पसंद की है तो आपको द कश्मीर फाइल्स भी देखनी चाहिए। डिस्क्लेमर यह है कि इस फिल्म को धर्म के चश्मे से न देखें। द कश्मीर फाइल्स से आप सहमत-असहमत हो सकते हैं। फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री के सियासी चिंतन पर आपत्ति हो सकती है। लेकिन सामाजिक जिम्मेदारी के तर्कों से आंका जाए तो क्या हिंदी फिल्मकार नैतिक रूप से अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं?
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