UP Assembly Election : बदलते काशी ने धर्म को लेकर राजनीतिक दलों की सोच भी बदल दी है – TV9 Bharatvarsh

उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Election) आखिरी चरण में आ गया है और इससे पहले कमोबेश सभी राजनीतिक दल (Political Parties) और उनके बड़े नेता बाबा विश्वनाथ (Baba Vishwanath) की शरण में पहुंच गए हैं. बाबा विश्वनाथ आंखें मूंद सब पर कृपा बरसा रहे हैं, यह अलग बात है कि कोई उनकी कृपा के समुंदर में भीग गया है या कौई सिर्फ राजनीतिक नैया को पार कराने की कोशिश में घंटा बजा रहा है. इस बार तो हर किसी को बाबा भोलोनाथ याद आ गए हैं, उन्हें भी जिन्हें यह सिर्फ ‘माइथोलॉजी’ का विषय लगता रहा होगा. उन्हें भी जो किसी ज़माने में धर्म को ‘अफीम’ मानते रहे और उन्हें भी जो धर्म को सवर्णों और ब्राह्मणों का ‘धंधा’ या दिखावा मानते रहे हैं. खैर, बाबा को ना तो इस बात का फर्क पड़ता है और ना उनके भक्तों को.
वैसे भी कहा जाता है कि भोले की बारात में तो हर कोई शामिल होता है, कोई पाबंदी नहीं- हर कोई मायने “हर कोई”. वैसे मुद्दा बाबा विश्वनाथ नहीं हैं और इसके मायने में भी नहीं, क्योंकि जो लोग मुद्दा बनाते रहे थे, अब उन्होंने भी छोड़ दिया है. अब यह नारा नहीं गूंज रहा – ‘अयोध्या तो झांकी है, काशी,मथुरा बाकी है’. अयोध्या से सरकार बन गई है. शायद डर लगता है कि अभी काशी या मथुरा का नाम लिया तो सरकार के लिए नई मुश्किलें खड़ी ना हो जाए. इस दौरान काशी विश्वनाथ की सूरत ज़रूर बदल गई है. मोदी सरकार में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बन कर तैयार हो गया है. प्रधानमंत्री मोदी ने उद्घाटन भी कर दिया है. सीधे गंगा घाट से भी जोड़ दिया गया है. अभी तक तस्वीरों में शिव की जटाओं से गंगा निकलती देखते थे, अब गंगाजल लेकर सीधे शिव का अभिषेक किया जा सकता है.
विश्वनाथ मंदिर पहले करीब तीन हज़ार वर्गफीट में फैला था. इसका विस्तार पांच लाख वर्ग फीट में हो गया है. करीब चार सौ करोड़ की लागत से मंदिर के आसपास के तीन सौ भवनों को खरीदा गया और फिर शुरू हुआ इसे नई सूरत देने का काम. विश्वनाथ धाम के लिए खरीदे गए भवनों को नष्ट करने के दौरान 40 से ज़्यादा पुराने मंदिर भी मिले. इन मंदिरों को इसी कॉरिडोर प्रोजेक्ट के तहत ही नए सिरे से संरक्षित किया गया.
वाराणसी देश के सबसे पुरानों शहरों में से एक है, आध्यात्मिक शहर, संगीत और कला का शहर, संस्कृति का वाहक शहर, साधुओं और घाटों का शहर, मणिकर्णिका घाट पर दिन रात जलती लाशों की कभी ना बुझने वाली चिताओं से जुड़ा जिंदा शहर. सैकड़ों बरसों से देश और विदेशी लोगों को आकर्षित करने वाला शहर, लेकिन साल 2014 में बीजेपी नेता नरेन्द्र मोदी ने इसे एक बार फिर राजनीतिक नक्शे पर चर्चा में ला दिया, जब उन्होंने गुजरात से वहां जाकर चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया, कहा- “मां, गंगा ने मुझे बुलाया है”. तब बहुत सी बातें हुईं, पहली यह कि मोदी चुनाव भले ही लड़ रहे हों, लेकिन वो वड़ोदरा और वाराणसी में से, वडोदरा को ही चुनेंगें, फिर गुजरात लौट जाएंगे, लेकिन मोदी ने वड़ोदरा सीट छोड़ दी और वाराणसी से सांसद हो गए. अगले चुनाव में भी उन्होंने वाराणसी को ही चुना. वाराणसी से उन्होंने सिर्फ़ चुनावी रिश्ता ही नहीं रखा, इसके विकास, इसके बदलाव, इसके सौंदर्यीकरण, गंगा की सफाई और गंगा घाटों का चेहरा बदलने में जुट गए. कुछ लोग कह सकते हैं कि मोदी ने काशी को क्योटो बनाने की बात की थी, वो तो अब तक नहीं बना है, लेकिन बनारस बदल रहा है, गंगा के जल की तरह, हर दिन नया बनारस.
आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने जब संगठन को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने और बढ़ाने का निर्णय किया तो उनके दिमाग में सबसे पहला नाम आया – काशी. काशी पूरे देश का संगम स्थान माना जाता है. इतिहास पर नज़र डालें तो काशी की महत्ता साफ हो जाती है. यह भगवान शिव की नगरी तो है ही, बाबा विश्वनाथ यहां विराजते हैं. इसके साथ भगवान बुद्ध का पहला उपदेश काशी में हुआ. शंकराचार्य का पहला व्याख्यान सत्र और स्वामी विवेकानंद ने भी अपने पहले विचार-प्रचार के लिए काशी को चुना था.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी दो दिन पहले काशी का ज़िक्र करते हुए कहा कि ‘कुछ लोगों ने मेरी मृत्यु की कामना काशी में की थी’. मोदी ने कहा कि “यह मेरा सौभाग्य होगा कि मैं बाबा महादेव के भक्तों की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दूं और यहां मृत्यु को प्राप्त करूं”. मोदी का यह जवाब समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के उस बयान पर था जब उन्होंने कहा था कि मोदी वाराणसी जा रहे हैं तो अच्छी बात है, आखिरी दौर में सबको काशी जाना चाहिए, हालांकि बाद में उन्हें सफाई दी कि उनका मकसद मोदी की आयु से नहीं बल्कि योगी सरकार के आखिरी चरण को लेकर था, लेकिन तब तक बातों का यह तीर उड़ चुका था.
प्रधानमंत्री मोदी ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को लेकर काम किया. पिछले दिनों उन्होंने इसका उदघाटन किया. यह कॉरिडोर काशी विश्वनाथ मंदिर को सीधा गंगा घाट से जोड़ता है. खुद मोदी भी गंगा जल लेकर विश्वनाथ का जलाभिषेक करने पहुंचे थे, यानि वो बाबा के भक्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ने में लगे थे. आठ सौ करोड़ की इस परियोजना से 240 साल बाद यह आध्यात्मिक केन्द्र नए अवतार, नए रूप में दिखाई देने लगा है. काशी विश्वनाथ के तोड़ने और फिर से बनने की कहानी लंबी है. सैकड़ों बरसों से चली आ रही है. बहुत से साम्राज्यों ने इसे तोड़ा तो उसके जवाब में बहुत से साम्राज्यों ने इसका पुनर्निर्माण भी करवाया. पिछले एक हज़ार साल में चार बार विश्वनाथ मंदिर को नेस्तनाबूद करने की कोशिश की गई. आक्रमणकारी तीन बार कामयाब भी हुए, लेकिन हर बार उसे और ज़्यादा ताकत और भावना के साथ ज़्यादा बेहतर रूप दिया गया.
औरंगजेब ने 18 अप्रैल 1669 को आखिरी बार विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के आदेश दिए थे. तब ही ज्ञानव्यापी मस्जिद बनवाई गई थी. इसके बाद सौ साल से ज़्यादा वक्त तक काशी विश्वनाथ मंदिर नहीं था. फिर 1780 में इंदौर की मराठा महारानी अहिल्या बाई होलकर ने मौजूदा मंदिर का निर्माण करवाया. इतिहास की किताबों के मुताबिक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1194 ईस्वी में पहली बार मंदिर को ध्वस्त किया. वह मोहम्मद गौरी का कमांडर था. करीब सौ साल बाद एक गुजराती व्यापारी ने मंदिर का दोबारा निर्माण करवाया. मंदिर पर दूसरी बार आक्रमण जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने 1447 में करवाया था. तब मंदिर को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया. सौ साल से ज़्यादा समय के बाद 1585 में राजा टोडरमल ने मंदिर का पुर्ननिर्माण करवाया.
राजा टोडरमल अकबर के नवरत्नों मे से एक माने जाते हैं. फिर शाहजहां ने 1642 में मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया, लेकिन तब हिंदुओं के भारी विरोध की वजह से इसे तोड़ा नहीं जा सका. उस वक्त काशी के साठ से ज़्यादा मंदिर तोड़ दिए गए. इतिहास के जानकार बताते हैं कि राजा रणजीत सिंह और दूसरे कई राजाओं ने भी अलग-अलग समय में मंदिर के लिए दान दिया. राजा रणजीत सिंह ने मंदिर के लिए सोना दान किया तो राजा त्रिवक्रम नारायण सिंह ने गर्भगृह के लिए चांदी के दरवाजे दान दिए. अहिल्या बाई होल्कर ने तो मंदिर का पुर्ननिर्माण ही करवाया.
प्रधानमंत्री मोदी के वाराणसी से सांसद बनने के बाद एक बार फिर से काशी विश्वनाथ मंदिर को लेकर काम शुरु हुआ और काशी विश्वनाथ कॉरिडर ने तो सूरत ही पलट दी लगती है, लेकिन क्या यह चुनावी मुद्दा हो सकता है. ज़ाहिर है कि इस कार्य से मोदी की छवि में इज़ाफ़ा हुआ होगा. उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल का इलाका जातीय राजनीति का इलाका माना जाता है. हिन्दुओं के लिए अयोध्या की तरह काशी तीर्थ क्षेत्र माना जाता है, लेकिन इसे अभी वो राजनीतिक गर्मी नहीं मिली है, इसलिए बीजेपी के लिए यह मुश्किल राजनीतिक सफ़र हो सकता है. पिछले चुनाव में भी समाजवादी पार्टी ने 11 सीटें यहां हासिल की थी.
बीजेपी के पुराने सहयोगी ओमप्रकाश राजभर भी अब अखिलेश यादव के साथ आ गए हैं, जिसका फायदा उन्हें मिलता दिख रहा है. कांग्रेस की महासचिव भी वाराणसी पहुंच गईं और बाबा विश्वनाथ के अलावा कबीर को भी उन्होंने याद कर लिया. राहुल गांधी भी भोलेनाथ के दर्शन और पूजा अर्चना के लिए पहुंच गए. अखिलेश यादव ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और जयंत चौधरी के साथ वाराणसी में सभा की. इस इलाके में बंगाली वोटर भी काफी तादाद में बताए जाते हैं, सवाल है कि ममता बनर्जी के आने से क्या ‘खेला होबे’? समाजवादी पार्टी को अगर सरकार बनानी है तो उसे इलाके में बढ़त बनानी ही होगी और कांग्रेस भी यहां से अपनी मौजूदगी साबित करने के लिए उम्मीद लगाए हुए है.
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इस इलाके में चुनाव का चेहरा बीजेपी के लिए योगी नहीं हैं सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी हैं और उन पर ही पूरा दारोमदार है. मोदी ने सातवें चरण में तीन दिन वाराणसी के लिए रखे. 2014 में वाराणसी ने यह वोटिंग से पहले संदेश देश भर को दे दिया था कि ‘मोदी आने वाले हैं’ तो इस बार यहीं से तय होगा कि “योगी रहेंगे” या “अखिलेश आएंगे”. काशी से क्योटो तक का सफर तो अभी पूरा नहीं हुआ है. चलते चलते केदारनाथ सिंह की कविता “मैंने गंगा को देखा” की, कुछ लाइनें याद आ रही हैं-
…एक बार फिर गंगा की ओर देखा और मुस्कराया यह एक थके हुए बूढ़े मल्लाह की मुस्कान थी जिसमें कोई पछतावा नहीं था यदि थी तो एक सच्ची और गहरी कृतज्ञता बढ़ते हुए चंचल जल के प्रति मानो उसकी आंखें कहती हों- अब हो गई शाम अच्छा भाई पानी राम! राम!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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