फ्रांस में निशाने पर मुसलमान? – दुनिया जहान – BBC हिंदी

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साल 2020. महीना अक्टूबर.
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन ने देश के नाम संदेश दिया. अर्दोआन ने तुर्की के लोगों से अपील की कि वो फ्रांस में बने सामान का बहिष्कार करें. 
अर्दोआन का ये संदेश टीवी पर प्रसारित हुआ और इसका असर कहीं आगे तक दिखा.
तुर्की की ही तरह कुवैत, जॉर्डन और क़तर की दुकानों से फ्रांस में बने सामान हटा दिए गए. इसी दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों पर आरोप लगाया कि वो इस्लाम पर हमला कर रहे हैं. बांग्लादेश, इराक़ और लीबिया से लेकर सीरिया तक फ्रांस के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हुए.
इस विरोध की वजह फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के वो भाषण और इंटरव्यू थे, जो उन्होंने सैमुअल पेटी नाम के शिक्षक का सर कलम किए जाने के बाद दिए थे. सैमुअल ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी एक क्लास में पैगंबर मोहम्मद के कार्टून दिखाए थे.
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बहुनस्लीय समाज को एकजुट रखने के मुद्दे पर मैक्रों ने कहा कि फ्रांस में राज्य यानी शासन व्यवस्था धर्म निरपेक्ष है और यही खूबी विविधता भरे समाज को एकजुट रखती है. फ्रांस में धर्मनिरपेक्षता के इस सिद्धांत को कहा जाता है 'लैसीते.' 
कई आलोचकों की राय है कि फ्रांस ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को मुसलमानों पर हमला करने का हथियार बना लिया है. 
क्या वाकई ऐसा है, इस सवाल पर ब्रिटेन की बाथ यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के लेक्चरर ऑएलियां मॉन्डों कहते हैं कि सबसे पहले ये समझना होगा कि 'लैसीते' है क्या?
ऑएलियां मॉन्डों के मुताबिक, "कुछ लोग इसे धर्मनिरपेक्षता कहते हैं, लेकिन ये धर्मनिरपेक्षता से कुछ अलग है. फ्रांस के इतिहास में इसकी ख़ास जगह है. फ्रांस की राष्ट्रीय पहचान और फ्रांस के नागरिक ख़ुद को जिस तरह देखते हैं, उसमें इसकी ख़ास भूमिका है."  
लैसीते फ्रांस में धर्म निरपेक्षता का एक रूप है. इसका लगातार विकास राज्य यानी शासन व्यवस्था को चर्च के प्रभाव से दूर करने की कोशिश के दौरान हुआ है. इसकी जड़ें इतिहास में बहुत पीछे तक जाती हैं लेकिन इसका बड़ा असर 18वीं शताब्दी में दिखता है.
ऑएलियां मॉन्डों याद दिलाते हैं कि साल 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के दौरान राज्य और चर्च के बीच सीधे टकराव की स्थिति बन गई. 
ऑएलियां मॉन्डों बताते हैं, "जब फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत हुई तब चर्च के पास काफी ताक़त थी. क्रांति के दौरान चर्च की भूमिका कमतर करने की कोशिश हुई. इसके बाद ही फ्रांस में धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहस शुरु हुई. हालांकि, ये सब बहुत लंबे वक़्त तक नहीं चला. पहले उदारवादी सरकार आई और फिर नेपोलियन ने सत्ता संभाल ली. नेपोलियन ने पोप और चर्च के साथ समझौता कर लिया. इसके बाद कुछ वक्त के लिए धर्मनिरपेक्षता की बातें भुला दी गईं." 
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"कान्कॉर्डैट" यानी नेपोलियन और पोप के बीच हुआ समझौता 19वीं शताब्दी के दौरान कायम रहा. लेकिन 1870 में राज्य से धर्म को अलग करने की दिशा में अहम पड़ाव आया. 
ऑएलियां बताते हैं कि तब अहम क़ानून पारित किए गए और स्कूलों को स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष बना दिया गया. ये फ़ैसला धर्म के ख़िलाफ़ नहीं था. ये राजनीतिक शक्ति से जुड़ा फ़ैसला था और इसका मक़सद चर्च की ताक़त कम करना था. यहीं से 1905 का क़ानून आया और धर्मनिरपेक्षता के फ्रांसीसी सिद्धांत 'लैसीते' की नींव पड़ी. जो ज़मीर की आज़ादी और धर्म पालन करने की आज़ादी तय करता है. ऑएलियां कहते हैं कि फ्रांस में किसी व्यक्ति के लिए नागरिकता उसकी तमाम दूसरी पहचान से बढ़कर है, ये विचार ही 1978 में बने क़ानून में भी दिखा. ये क़ानून नस्लीय आधार पर डाटा जुटाने को लेकर था. 
ऑएलियां मॉन्डों बताते हैं, " फ्रांस में धर्म के आधार पर डाटा इकट्ठा करना गैरक़ानूनी है. नस्लीय और राजनीतिक आधार पर डाटा जुटाने की भी मनाही है. फ्रांस में इस बात के मायने नहीं हैं कि आपकी आस्था कहां है या आप कौन हैं? क़ानून के आगे सभी बराबर हैं." 
फ्रांस में 1970 के दशक में गर्भपात को क़ानूनी मान्यता देने को लेकर बहस हुई. इसमें भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का असर दिखा. कैथलिक चर्च गर्भपात को क़ानूनी दर्जा देने का विरोध कर रही थीं. लेकिन, साल 1975 में गर्भपात को क़ानूनी मान्यता मिल गई. इसके बाद फ्रांस के सामने एक और सवाल था और ये एक मजहब को लेकर था. 
ऑएलियां मॉन्डों कहते हैं, " 1980 के दशक के आखिर में फ्रांस को महसूस हुआ कि वो नस्लीय विविधता वाला देश बन रहा है. इसी दौरान फ्रांस के समाज ने महसूस किया कि उनके यहां मुसलमानों की आबादी बढ़ रही है. इसकी अहम वजह फ्रांस का औपनिवेशिक अतीत था." 
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इस दौरान फ्रांस में चर्चा इस सवाल पर आ गई कि 'लैसीते' यानी धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत देश की मुसलमान आबादी पर कैसे लागू किया जाना चाहिए?
साल 1989 में स्कार्फ से सिर ढकने को लेकर तीन मुसलमान छात्रों को उनके स्कूल ने घर भेज दिया. स्कूल के शिक्षकों की राय थी कि सिर ढकना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के ख़िलाफ़ है.
हालांकि, बाद में कोर्ट ने कहा कि ये प्रतिबंध क़ानून सम्मत नहीं था. लेकिन फिर भी ये मुद्दा चर्चा में बना रहा. 1980 के दशक के ये मामले फ्रांस के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुए. और 2004 और 2010 के क़ानूनों का आधार बने.
लेकिन, ऑएलियां कहते हैं कि उस पर बात करने के पहले ये समझना अहम है कि 1905 में बना एक क़ानून आज के फ्रांस पर किस तरह लागू होना चाहिए?
इस पर फ्रांस की पत्रकार और लेखक एनियेस प्वारिये कहती हैं, " लैसीते हमारे लोकतांत्रिक डीएनए का हिस्सा है. ये हवा में है. सांसों में घुला हुआ सा है. लोकतंत्र की ही तरह आप इसे हल्के में नहीं लेते हैं." 
एनियेस बताती हैं कि आधुनिक दौर के फ्रांस के लिए 'लैसीते' यानी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के मायने क्या हैं? 
वो कहती हैं, " फ्रांस के किसी भी व्यक्ति के लिए लैसीते का मतलब है कि धर्म के मामले में फ़ैसले लेने की आज़ादी. वो आस्तिक रहे या फिर नास्तिक ये पूरी तरह उनकी मर्ज़ी है. ईश्वर के साथ आपका रिश्ता एक निजी बात है. जब मैं बड़ी हो रही थी तब शायद ही इस बारे में बात होती थी. ये इस फ्रांस के सबसे अहम सिद्धांत में से एक है."  
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फ्रांस में आज 'लैसीते' को लेकर जो बहस हो रही है, उसमें सवाल पूछा जा रहा है कि क्या क्लासरूम, दफ़्तर और मंत्रालय धर्म निरपेक्ष होने चाहिए. एनियेस मानती हैं कि 'लैसीते' पर बना क़ानून 'रिलीजियस न्यूट्रेलिटी' यानी धर्म निरपेक्षता सुनिश्चित करता है.  
एनियेस के मुताबिक, "फ्रांस में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत यानी 'लैसीते' कोई राय नहीं है. ये आज़ादी है. ये किसी तरह की आस्था नहीं है. लेकिन इसके सिद्धांत सभी तरह की आस्था को मान्य करते हैं. इसमें आप ज़मीर की आज़ादी का सम्मान करते हैं. ये अवधारणा या विचार खालिस फ्रांस का है. कई बार इसे समझने में ग़लती हो जाती है. कई बार इसे वो समझ लिया जाता है, जो ये है नहीं."  
एनियेस कहती हैं कि अमेरिका से तुलना करते हुए 'लैसीते' को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. वो कहती हैं कि अमेरिका में धर्म को संघीय शासन के 'हस्तक्षेप से रक्षण' हासिल है. फ्रांस में स्थिति इसके उलट है.
फ्रांस में साल 2004 में सरकारी स्कूलों में धर्म से जुड़े प्रतीक चिन्ह पहनने पर पाबंदी लगा दी गई थी. इनमें ईसाइयों का क्रॉस और मुसलमानों का हिजाब शामिल था. साल 2010 में फ्रांस की सरकार ने पार्कों, गलियों और सार्वजनिक स्थानों पर कोई भी ऐसी चीज पहनने पर रोक लगा दी जिससे पूरा चेहरा छुप जाता हो. इनमें बुरका शामिल था. फ्रांस के अधिकांश लोगों की तरह एनियेस भी 'लैसीते' की समर्थक हैं लेकिन इसे लागू करने के तरीके पर वो सवाल उठाती हैं 
एनियेस कहती हैं, "जब (फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति) निकोला सारकोज़ी ने सार्वजनिक स्थानों और गलियों में बुर्के पर पाबंदी लगाने के लिए क़ानून बनाया तब उन्होंने तनाव की स्थिति पैदा कर दी. इससे भाईचारा बढ़ाने में मदद नहीं मिली."
इसके बाद साल 2016 की गर्मियों में सिर समेत पूरे जिस्म को ढकने वाला स्विमिंग सूट बुर्कीनी चर्चा में आ गया. एक मेयर ने इस पर पाबंदी लगा दी थी. बाद में अदालत के आदेश पर ये पाबंदी बाद में हटा ली गई.
एनियेस के मुताबिक 'लैसीते' को समझने को लेकर दिक्कत सिर्फ़ फ्रांस के अंदर ही नहीं हो रही है, बल्कि देश के बाहर भी इसे जिस तरह से समझा और समझाया गया है, उसे लेकर समस्या देखने को मिली है. इस साल अक्टूबर में राष्ट्रपति मैक्रों ने 'अलजज़ीरा' को एक इंटरव्यू दिया और उसके बाद उनकी आलोचना शुरु हो गई. इससे भी यही ज़ाहिर हुआ कि फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को लेकर कहीं न कहीं भ्रम की स्थिति है.
ऐसा क्यों हुआ, इस सवाल पर एनियेस कहती हैं, " मैक्रों ने कहा कि 'लैसीते' ने किसी की जान नहीं ली. इसे लेकर सोशल नेटवर्क पर कई लोगों ने प्रतिक्रियाएं दी. उन्होंने मैक्रों से पूछा कि माओ के बारे में क्या कहेंगे? स्टालिन और साम्यवाद के बारे में क्या कहेंगे? तब हमें समझ आया कि फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता को लेकर काफी भ्रम की स्थिति है. इसे राज्य पोषित नास्तिकता समझा जा रहा है. जबकि ऐसा है नहीं." 
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मैक्रों ने फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता को समझाने का जो प्रयास किया, उस पर कई देशों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया आईं और इनमें ग़ैर मुसलमान देश भी शामिल थे.
एनियेस ये भी कहती हैं कि मुसलमानों समेत फ्रांस के ज़्यादातर नागरिक धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के समर्थक हैं. लेकिन साथ ही ये आरोप भी सुनाई देता है कि इस क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है.
एनियेस कहती हैं, " मैं कह सकती हूं कि धुर दक्षिणपंथी हों या फिर वामपंथी दोनों ने इसे हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. मेरी राय में धर्मनिरपेक्षता को हर समस्या का मूल मानने के बजाए असल समस्या पर ध्यान दिया जाना ज़्यादा अहम है. चाहे वो नस्ल के आधार पर होने वाला भेदभाव हो या फिर सामाजिक अन्याय. धर्मनिरपेक्षता तो इनमें से कई समस्याओं का समाधान सुझाती है." 
हालांकि, फ्रांस में कई लोग इस आरोप से सहमत दिखते हैं कि 'लैसीते' का इस्तेमाल मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए हो रहा है.
यूनिवर्सिटी टूलूज़ कैपिटल में क़ानून की शोधार्थी रिम साराह आलोएन भी उनमें से एक हैं.
रिम साराह कहती हैं, " इतिहास देखें तो लैसीते यानी धर्मनिरपेक्षता का विचार उदारवादी था जिसे राजनीतिक सत्ता संभालने वालों ने धार्मिक आज़ादी पर रोक लगाने वाला हथियार बना दिया. फिलहाल ये हथियार मुसलमानों पर इस्तेमाल हो रहा है. दिक्कत यही है."  
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रिम साराह के मुताबिक 20वीं सदी की शुरुआत में जब ये विचार सामने आया था, तब के मुक़ाबले आज इसे कहीं अलग तरीके से आजमाया जा रहा है.
रिम साराह कहती हैं कि साल 1905 में जो क़ानून बनाया गया था, उसमें सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक पहनावे पर रोक लगाने की कोई बात नहीं थी. क़ानून या संविधान में ऐसा कुछ नहीं है, जो लोगों को उनकी धार्मिक पहचान जाहिर करने से रोके. उनकी राय में आज जो हो रहा है, वो 1905 में बने क़ानून के ख़िलाफ़ है.
हालांकि, तर्क ये भी दिया जाता है कि फ्रांस एक धर्मनिरपेक्ष देश है और सार्वजनिक स्थान पर धार्मिक पहचान जाहिर करना इससे मेल नहीं खाता है.
लेकिन रिम साराह इस तर्क से सहमत नहीं हैं.
वो कहती हैं, " ये धर्मनिरपेक्षता नहीं है. लैसीते में धर्मनिरपक्षेता के मायने ये हैं कि राज्य और उसके कर्मचारियों को धार्मिक आधार पर निरपेक्ष रहना होगा. ये आम नागरिकों पर लागू नहीं होगा. जरा सोचिए अगर सार्वजनिक स्थान धर्म को लेकर निरपेक्ष होते तो जुलूस न निकाले जाते. क्रिसमस ट्री नहीं सजाए जाते."
आंकड़े जाहिर करते हैं कि पश्चिमी यूरोप में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी फ्रांस में रहती है. ये फ्रांस की कुल आबादी का करीब छह प्रतिशत है. हालांकि, इन आंकड़ों पर पुख्ता होने की मुहर नहीं लगाई जा सकती. वजह ये है कि फ्रांस में सरकार धार्मिक आधार पर आंकड़े जमा नहीं करती है.
रिम साराह फ्रांसीसी मुसलमान हैं. उनका कहना है कि धार्मिक आज़ादी की हिफाजत करने की जगह फ्रांस के नेताओं ने 'लैसीते' के विचार के ही ख़िलाफ़ काम किया.
वो कहती हैं, "ये कहना कि क़ानून सबके लिए है, पूरी तरह सही नहीं है. क्योंकि समाज में कुछ समूह ऐसे होंगे जो इससे प्रभावित नहीं होंगे जबकि दूसरे समूहों पर असर होगा. क्योंकि उनके मजहब में ख़ास तरह से कपड़े पहनने को कहा गया है. अब स्थिति ये है कि आप बुर्का, हिजाब और क्रॉस नहीं पहन सकते हैं. भले ही ये सब पर लागू होता है लेकिन इस क़ानून के जरिए साफ़ तौर पर निशाने पर हिजाब था."
रिम साराह का कहना है कि इस असमानता के नतीजे दूरगामी हैं. कुछ मामलों में इसने मुसलमानों के 'अंध विरोध' को जायज ठहराया है. वो कहती हैं कि फ्रांस के मुसलमानों को हमेशा एक ऐसे समूह के रूप में देखा जाता है, जिसे 'अपनी वफ़ादारी साबित करने की जरूरत' है. रिम साराह एक हालिया घटना का उदाहरण देती हैं, जहां एक स्कूल ट्रिप के दौरान एक छात्र की मां के हिजाब पहनने को लेकर विवाद हो गया.
रिम साराह कहती हैं, " एक दक्षिणपंथी नेता ने उस महिला से हिजाब हटाने के लिए कहा. उनके मुताबिक वो फ्रांस के मूल्यों का उल्लंघन कर रही थीं. पहली बात ये है कि वो धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं कर रही थीं. वो सरकारी कर्मचारी नहीं बल्कि आम नागरिक हैं. उनके पास सिर पर स्कार्फ पहनने का अधिकार है. दूसरी बात अगर उस बच्चे के नज़रिए से देखें तो उसके लिए उसकी मां को उनकी आस्था और पहनावे की वजह से शर्मिंदगी झेलनी पड़ी. क्या आपके लिए यही उदारवादी लोकतंत्र है? तो भले ही ये क़ानून सभी के लिए हों लेकिन इनके निशाने पर मुसलमान हैं और इस इसे लेकर कोई शक नहीं है." 
हाल में फ्रांस की सरकार ने 'लैसीते' यानी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को दोबारा लागू करने के लिए प्रस्तावित क़ानून के ड्राफ़्ट पर चर्चा की. राष्ट्रपति मैक्रों के शब्दों में ये इस्लामिक अलगाववाद पर काबू पाने और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बचाने की कवायद है. इसमें स्कूलों की कड़ी निगरानी होगी और मस्जिदों को विदेश मिलने वाले चंदे पर नियंत्रण रखा जाएगा.
सरकार की इन कोशिशों के बीच रिम साराह की राय है कि प्रशासन को इस तरह काम करना चाहिए जिससे समाज एकजुट रहे. उन्हें तय करना चाहिए कि सभी को मूलभूत आज़ादी और अधिकार मिलें. वो कहती हैं कि फ्रांस के मुसलमान यहां के मूल्यों के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश करते रहे हैं. सरकार को भी चाहिए कि वो उन्हें अपनाएं और ख़तरा न समझें. रिम साराह ये भी कहती हैं कि अगर सरकार आज़ादी, समानता और भाईचारा बढ़ाने की कोशिश नहीं करती तो फ्रांस ख़ुद के लोकतांत्रिक होने का दावा नहीं कर सकता है. दुनिया के कई और देश उनकी राय से सहमत दिखते हैं.
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कैसे अलग है फ्रांस?
अमेरिकी लेखक थॉमस चैटरटन विलियम्स अर्से से पेरिस में रहते हैं. वो कहते हैं कि कई नस्लों वाला समाज कैसे घुल मिलकर चल सकता है, इसे लेकर फ्रांस के पास अमेरिका और ब्रिटेन से अलग समझ है.
थॉमस ने फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता को समझने में बरसों का वक़्त लगाया है.
वो कहते हैं, " मेरी समझ में फ्रांस में बड़ा अंतर ये है कि यहां धर्मनिरपेक्षता में बहुत भरोसा है. अमेरिका का समाज बहुत धार्मिक है. अमेरिकी लोग जिस तरह सार्वजनिक तौर पर आस्था के प्रतीक दिखाते हैं, फ्रांस के लोग वैसा नहीं करना चाहते हैं."
थॉमस आगे कहते हैं, "धर्मनिरपेक्षता को लेकर फ्रांस की सोच बिल्कुल साफ़ है. वो एक ऐसा समाज तैयार करना चाहते हैं जिसमें लोगों के अलग-अलग समूह न हों. जहां अलग अधिकार और अलग मूल्य न हों. वो एक ऐसा समाज चाहते हैं जहां सभी महिला और पुरुष नागरिकों के पास समान अधिकार हों. ये बहुत अलग तरह की परिकल्पना है."
लेकिन धर्मनिरपेक्षता की इसी सिद्धांत को लेकर दुनिया भर में फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की जिस तरह आलोचना हुई, थॉमस उसे किस तरह देखते हैं, इस पर वो कहते हैं, "जब मैक्रों ये कहते हैं कि लैसीते ने किसी की जान नहीं ली, तो वो ख़ुद को उस रूढिवादी सोच से अलग करना चाहते हैं, जो किसी को एक शिक्षक का गला काटने के लिए प्रेरित कर सकती है. ये ऐसी प्रणाली है जहां के मूल्य कहते हैं कि हर किसी को सम्मान मिलना चाहिए, चाहे उनका धर्म, लिंग और नस्ल जो भी हो." 
थॉमस की राय है कि दूसरे देशों के कुछ नेताओं ने तनाव खड़ा करने के लिए जान बूझकर फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता की ग़लत व्याख्या की. जो कहते हैं कि सिर्फ़ मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है, वो इसे सही तरह से नहीं देख रहे हैं.
विविधता भरे समाज में एक ऐसे क़ानून बनाना जिनका प्रभाव हर सदस्य पर एक सा हो, एक ऐसी चुनौती है, जिसका सामना कई देश करते रहे हैं.
साल 1905 में बना एक क़ानून आज के फ्रांस को एक साथ लेकर चल पाएगा, ये देखना बाकी है. जैसा कि ऑएलियां मॉन्डों कहते हैं कि सिद्धांत अपने आप में सबकुछ नहीं होता, बल्कि मायने इस बात के होते हैं कि वो सिद्धांत किस तरह सामने आता है. अगर आप तुलना करें कि 20 साल पहले ये कैसा था या 40 साल पहले ये कैसा था तो आपको बहुत अलग-अलग जवाब मिलेंगे. यही वो बात है जिससे तालमेल बिठाने में फिलहाल फ्रांस के समाज को दिक्कत हो रही है.
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