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देश में इस वक्त ज्ञानवापी मामले की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है। वाराणसी कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इससे जुड़े मामलों पर सुनवाई कर रहे हैं। इन सुनवाइयों में 1991 का पूजा स्थल कानून सबसे ज्यादा चर्चा में है। मंगलवार को भी सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पक्ष की ओर से दायर याचिका में वाराणसी कोर्ट के आदेश को पूजा स्थल कानून,1991 का उल्लंघन बताया गया है।
जिस कानून की इस वक्त पूरे देश में चर्चा है, उसकी वैधानिकता को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 की धारा दो, तीन और चार की संवैधानिक वैद्यता को चुनौती दी है। याचिकाकर्ता का कहना है कि ये तीनों धाराएं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,15, 21, 25,26 और 29 का उल्लंघन करती हैं। याचिका के मुताबिक ये सभी हमारे संविधान की मूल भावना और प्रस्तावना के खिलाफ हैं।
आखिर ये पूजा स्थल कानून-1991 क्या है? उस समय इसे लागू करने की जरूरत क्यों पड़ी? इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में किस आधार पर चुनौती दी गई है? क्या ये याचिका ही काशी और मथुरा जैसे विवादों का रास्ता खोलने वाली याचिका बनी है? कितने धार्मिक स्थल हैं जिनके बारे में दावा है कि वो मंदिर तोड़कर बने हैं? आइए जानते हैं…
1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने पूजा स्थल कानून लेकर आई थी। इस कानून के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। अयोध्या का मामला उस वक्त कोर्ट में था इसलिए उसे इस कानून से अलग रखा गया था।
इस कानून की धारा-दो कहती है कि अगर 15 अगस्त 1947 मौजूद किसी धार्मिक स्थल के चरित्र में बदलाव को लेकर कोई याचिका या अन्य कार्यवाही किसी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में लंबित है, तो उसे बंद कर दिया जाएगा। वहीं, कानून की धारा-3 किसी पूजा स्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में बदलने पर रोक लगाती है। यहां तक कि अधिनियम की धारा 3 किसी भी धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल के पूर्ण या आंशिक रूप से धर्मांतरण को एक अलग धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल या एक ही धार्मिक संप्रदाय के एक अलग खंड में बदलने पर रोक लगाती है।
धारा-4(1) कहती है कि 15 अगस्त 1947 को किसी पूजा स्थल का जो चरित्र था उसे वैसा ही बनाए रखना होगा। वहीं. धारा-4(2) इसके प्रावधान उन मुकदमों, अपीलों और कानूनी कार्यवाही को रोकने की बात करता हैं जो पूजा स्थल कानून के लागू होने की तिथि पर लंबित थे। इसके साथ ही ये धारा किसी नए मामले को दायर करने पर भी रोक लगाती है। इस कानून की धारा-5 कहती है कि पूजा स्थल कानून राम जन्मभूमि से जुड़े मुकदमों पर लागू नहीं होगा।
क्यों बनाया गया था ये कानून?
1990 के दौर में राम मंदिर आंदोलन चरम पर था। राम मंदिर आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के चलते अयोध्या के साथ ही कई और मंदिर-मस्जिद विवाद उठने लगे थे। इन विवादों पर विराम लगाने के लिए ही उस वक्त की नरसिम्हा राव सरकार ये कानून लेकर आई थी।
इस कानून को चुनौती देने वाली कम से कम दो याचिकाएं कोर्ट में विचाराधीन हैं। इनमें से एक याचिका लखनऊ के विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ और कुछ अन्य सनातन धर्म के लोगों की है। दूसरी याचिका भाजपा नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने लगाई है। दोनों याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि ये कानून न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है। जो संविधान की बुनियादी विशेषता है। इसके साथ ही ये कानून एक मनमाना तर्कहीन कटऑफ तिथि भी लागू करता है जो हिन्दू, जैन, बुद्ध और सिख धर्म के अनुयायियों के अधिकार को कम करता है। अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को नोटिस जारी किया था। हालांकि, केंद्र की ओर से अब तक कोर्ट में जवाब दाखिल नहीं किया गया है।
क्या इस कानून का विरोध पहली बार हो रहा है?
जुलाई 1991 में जब केंद्र सरकार ये कानून लेकर आई थी तब भी संसद में भाजपा ने इसका विरोध किया था। उस वक्त राज्यसभा में अरुण जेटली और लोकसभा में उमा भारती ने इस मामले को संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजने की मांग की थी।
अयोध्या मामले का फैसला आने के बाद एक बार फिर काशी और मथुरा सहित देशभर के करीब 100 पूजा स्थलों पर मंदिर की जमीन होने को लेकर दावेदारी की जा रही है, लेकिन 1991 के कानून के चलते दावा करने वाले कोर्ट नहीं जा सकते। ज्ञानवापी में इसी कानून के उल्लंघन की बात मुस्लिम पक्ष कह रहा है।
ज्ञानवापी से ही जुड़े एक और मामले में याचिकाकर्ता और वकील रंजना अग्निहोत्री कहती हैं कि 1991 का पूजा स्थल कानून किसी धर्म स्थल के धार्मिक प्रारूप को नहीं बदलने की बात कहता है। ज्ञानवापी का धार्मिक प्रारूप कहता है कि 1947 से पहले यहां माता श्रंगार गौरी की पूजा हर रोज होती रही है। 1991 तक उनकी पूजा होती रही है। अभी भी साल में एक बार इसकी पूजा हो रही है। अब वहां शिवलिंग मिला है। एडवोकेट अग्निहोत्री कहती हैं कि किसी स्थान पर नमाज पढ़ने मात्र से उस स्थान का धार्मिक प्रारूप नहीं बदलता।
अपने मामले को लेकर वो एक और तर्क देती हैं। उनका कहना है कि पूजा स्थल कानून 1991 में बना। उससे पहले 1983 में काशी विश्वनाथ एक्ट बन चुका है। ये पूरा परिसर काशी विश्वनाथ एक्ट के तहत संचालित होता है। वो कहती हैं कि 1991 का एक्ट ये भी कहता है कि ये एक्ट उन परिसरों पर लागू नहीं होगा जो किसी और एक्ट से संचालित होते हैं। एडवोकेट अग्निहोत्री कहती हैं कि इन्हीं दो अहम आधारों पर हमारी याचिका स्वीकार हुई है।
वहीं, याचिका की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका लगाने वाले अश्विनी उपाध्याय कहते है कि उनकी याचिका किसी धर्म स्थल की दावेदारी को लेकर नहीं लगाई गई। बल्कि इस याचिका में तो दावेदारी पर रोक लगाने वाले 1991 के कानून की वैधानिकता को चुनौती दी गई है। उनका कहना है कि ये कानून भेदभावपूर्ण और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। उनकी याचिका में इस कानून की धारा दो, तीन, चार को रद्द करने की मांग की गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि ये धाराएं 1192 से लेकर 1947 के दौरान आक्रांताओं द्वारा गैरकानूनी रूप से स्थापित किए गए पूजा स्थलों को कानूनी मान्यता देती हैं।
याचिका में कहा गया है कि इस एक्ट में राम जन्मभूमि का जिक्र है और उसे कानून के दायरे से अलग रखा गया है, लेकिन कृष्ण जन्म भूमि को नहीं। जबकि राम और कृष्ण दोनों ही विष्णु का अवतार हैं। ऐसे में ये कानून संविधान के आर्टिकल-14 और 15 का उल्लंघन करता है जो सभी को समानता का अधिकार देता है।
इस तरह के कितने मंदिर हैं जिन पर आगे विवाद खड़ा हो सकता है?
अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि देश में ऐसे 900 मंदिर हैं जिन्हें 1192 से 1947 के बीच तोड़कर उनकी जमीन पर कब्जा करके मस्जिद या चर्च बना दिया गया। इनमें से सौ तो ऐसे हैं जिनका जिक्र हमारे 18 महापुराणों में है। वो कहते हैं कि इस कानून का बेस 1947 रखा गया है। अगर इस तरह का कोई बेस बनाया जाता है तो वो बेस 1192 ही होना चाहिए।
देश में इस वक्त ज्ञानवापी मामले की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है। वाराणसी कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इससे जुड़े मामलों पर सुनवाई कर रहे हैं। इन सुनवाइयों में 1991 का पूजा स्थल कानून सबसे ज्यादा चर्चा में है। मंगलवार को भी सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पक्ष की ओर से दायर याचिका में वाराणसी कोर्ट के आदेश को पूजा स्थल कानून,1991 का उल्लंघन बताया गया है।
जिस कानून की इस वक्त पूरे देश में चर्चा है, उसकी वैधानिकता को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 की धारा दो, तीन और चार की संवैधानिक वैद्यता को चुनौती दी है। याचिकाकर्ता का कहना है कि ये तीनों धाराएं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,15, 21, 25,26 और 29 का उल्लंघन करती हैं। याचिका के मुताबिक ये सभी हमारे संविधान की मूल भावना और प्रस्तावना के खिलाफ हैं।
आखिर ये पूजा स्थल कानून-1991 क्या है? उस समय इसे लागू करने की जरूरत क्यों पड़ी? इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में किस आधार पर चुनौती दी गई है? क्या ये याचिका ही काशी और मथुरा जैसे विवादों का रास्ता खोलने वाली याचिका बनी है? कितने धार्मिक स्थल हैं जिनके बारे में दावा है कि वो मंदिर तोड़कर बने हैं? आइए जानते हैं…
1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने पूजा स्थल कानून लेकर आई थी। इस कानून के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। अयोध्या का मामला उस वक्त कोर्ट में था इसलिए उसे इस कानून से अलग रखा गया था।
इस कानून की धारा-दो कहती है कि अगर 15 अगस्त 1947 मौजूद किसी धार्मिक स्थल के चरित्र में बदलाव को लेकर कोई याचिका या अन्य कार्यवाही किसी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में लंबित है, तो उसे बंद कर दिया जाएगा। वहीं, कानून की धारा-3 किसी पूजा स्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में बदलने पर रोक लगाती है। यहां तक कि अधिनियम की धारा 3 किसी भी धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल के पूर्ण या आंशिक रूप से धर्मांतरण को एक अलग धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल या एक ही धार्मिक संप्रदाय के एक अलग खंड में बदलने पर रोक लगाती है।
धारा-4(1) कहती है कि 15 अगस्त 1947 को किसी पूजा स्थल का जो चरित्र था उसे वैसा ही बनाए रखना होगा। वहीं. धारा-4(2) इसके प्रावधान उन मुकदमों, अपीलों और कानूनी कार्यवाही को रोकने की बात करता हैं जो पूजा स्थल कानून के लागू होने की तिथि पर लंबित थे। इसके साथ ही ये धारा किसी नए मामले को दायर करने पर भी रोक लगाती है। इस कानून की धारा-5 कहती है कि पूजा स्थल कानून राम जन्मभूमि से जुड़े मुकदमों पर लागू नहीं होगा।
क्यों बनाया गया था ये कानून?
1990 के दौर में राम मंदिर आंदोलन चरम पर था। राम मंदिर आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के चलते अयोध्या के साथ ही कई और मंदिर-मस्जिद विवाद उठने लगे थे। इन विवादों पर विराम लगाने के लिए ही उस वक्त की नरसिम्हा राव सरकार ये कानून लेकर आई थी।
इस कानून को चुनौती देने वाली कम से कम दो याचिकाएं कोर्ट में विचाराधीन हैं। इनमें से एक याचिका लखनऊ के विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ और कुछ अन्य सनातन धर्म के लोगों की है। दूसरी याचिका भाजपा नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने लगाई है। दोनों याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि ये कानून न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है। जो संविधान की बुनियादी विशेषता है। इसके साथ ही ये कानून एक मनमाना तर्कहीन कटऑफ तिथि भी लागू करता है जो हिन्दू, जैन, बुद्ध और सिख धर्म के अनुयायियों के अधिकार को कम करता है। अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को नोटिस जारी किया था। हालांकि, केंद्र की ओर से अब तक कोर्ट में जवाब दाखिल नहीं किया गया है।
क्या इस कानून का विरोध पहली बार हो रहा है?
जुलाई 1991 में जब केंद्र सरकार ये कानून लेकर आई थी तब भी संसद में भाजपा ने इसका विरोध किया था। उस वक्त राज्यसभा में अरुण जेटली और लोकसभा में उमा भारती ने इस मामले को संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजने की मांग की थी।
अयोध्या मामले का फैसला आने के बाद एक बार फिर काशी और मथुरा सहित देशभर के करीब 100 पूजा स्थलों पर मंदिर की जमीन होने को लेकर दावेदारी की जा रही है, लेकिन 1991 के कानून के चलते दावा करने वाले कोर्ट नहीं जा सकते। ज्ञानवापी में इसी कानून के उल्लंघन की बात मुस्लिम पक्ष कह रहा है।
ज्ञानवापी से ही जुड़े एक और मामले में याचिकाकर्ता और वकील रंजना अग्निहोत्री कहती हैं कि 1991 का पूजा स्थल कानून किसी धर्म स्थल के धार्मिक प्रारूप को नहीं बदलने की बात कहता है। ज्ञानवापी का धार्मिक प्रारूप कहता है कि 1947 से पहले यहां माता श्रंगार गौरी की पूजा हर रोज होती रही है। 1991 तक उनकी पूजा होती रही है। अभी भी साल में एक बार इसकी पूजा हो रही है। अब वहां शिवलिंग मिला है। एडवोकेट अग्निहोत्री कहती हैं कि किसी स्थान पर नमाज पढ़ने मात्र से उस स्थान का धार्मिक प्रारूप नहीं बदलता।
अपने मामले को लेकर वो एक और तर्क देती हैं। उनका कहना है कि पूजा स्थल कानून 1991 में बना। उससे पहले 1983 में काशी विश्वनाथ एक्ट बन चुका है। ये पूरा परिसर काशी विश्वनाथ एक्ट के तहत संचालित होता है। वो कहती हैं कि 1991 का एक्ट ये भी कहता है कि ये एक्ट उन परिसरों पर लागू नहीं होगा जो किसी और एक्ट से संचालित होते हैं। एडवोकेट अग्निहोत्री कहती हैं कि इन्हीं दो अहम आधारों पर हमारी याचिका स्वीकार हुई है।
वहीं, याचिका की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका लगाने वाले अश्विनी उपाध्याय कहते है कि उनकी याचिका किसी धर्म स्थल की दावेदारी को लेकर नहीं लगाई गई। बल्कि इस याचिका में तो दावेदारी पर रोक लगाने वाले 1991 के कानून की वैधानिकता को चुनौती दी गई है। उनका कहना है कि ये कानून भेदभावपूर्ण और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। उनकी याचिका में इस कानून की धारा दो, तीन, चार को रद्द करने की मांग की गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि ये धाराएं 1192 से लेकर 1947 के दौरान आक्रांताओं द्वारा गैरकानूनी रूप से स्थापित किए गए पूजा स्थलों को कानूनी मान्यता देती हैं।
याचिका में कहा गया है कि इस एक्ट में राम जन्मभूमि का जिक्र है और उसे कानून के दायरे से अलग रखा गया है, लेकिन कृष्ण जन्म भूमि को नहीं। जबकि राम और कृष्ण दोनों ही विष्णु का अवतार हैं। ऐसे में ये कानून संविधान के आर्टिकल-14 और 15 का उल्लंघन करता है जो सभी को समानता का अधिकार देता है।
इस तरह के कितने मंदिर हैं जिन पर आगे विवाद खड़ा हो सकता है?
अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि देश में ऐसे 900 मंदिर हैं जिन्हें 1192 से 1947 के बीच तोड़कर उनकी जमीन पर कब्जा करके मस्जिद या चर्च बना दिया गया। इनमें से सौ तो ऐसे हैं जिनका जिक्र हमारे 18 महापुराणों में है। वो कहते हैं कि इस कानून का बेस 1947 रखा गया है। अगर इस तरह का कोई बेस बनाया जाता है तो वो बेस 1192 ही होना चाहिए।
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