कैबिनेट का स्वरूप कैसा रहेगा
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सामान्य तौर पर धर्म के दो प्रकार हैं। पहला स्वाभाविक धर्म और दूसरा भागवत धर्म। स्वाभाविक धर्म का अर्थ है जिस पर अमल करने से दैहिक संरचना से संबंधित कार्यो की पूर्ति होती है, यानी आहार, निद्रा और मैथुन आदि क्रियाएं। भागवत धर्म वह है जो मनुष्य को दूसरे जीवों से पृथक करता है। स्वाभाविक धर्म और भागवत धर्म, दोनों का उद्देश्य एक ही है-सुख
सामान्य तौर पर धर्म के दो प्रकार हैं। पहला स्वाभाविक धर्म और दूसरा भागवत धर्म। स्वाभाविक धर्म का अर्थ है जिस पर अमल करने से दैहिक संरचना से संबंधित कार्यो की पूर्ति होती है, यानी आहार, निद्रा और मैथुन आदि क्रियाएं। भागवत धर्म वह है जो मनुष्य को दूसरे जीवों से पृथक करता है।
स्वाभाविक धर्म और भागवत धर्म, दोनों का उद्देश्य एक ही है-सुख प्राप्त करना, किंतु स्वाभाविक धर्म में सुख की गहनता अत्यंत सीमित होती है, जबकि भागवत धर्म में सुख की गहनता अनंत होती है। भागवत धर्म से ही कोई संतुष्ट हो सकता है। भागवत धर्म चतुष्पाद है। इसके अंतर्गत परमात्मा, विस्तार, रस और सेवा को समाहित किया जाता है। परमात्मा यानी प्रथम पाद जीवों की पहुंच के बाहर है। द्वितीय पाद विस्तार है, जिसका अर्थ है सभी तत्वों का सीमा रेखा से बाहर प्रसार और विस्तार। यह जगत विस्तार का प्रसारित रूप है। इसी तरह रस का अर्थ है ‘प्रवाह’। मानव अस्तित्व का एक प्रवाह या रस है। मानव अस्तित्व की दो सिराओं में एक ओर परमात्मा या परमरस है और दूसरे छोर पर विषय रस या स्थूलजगत का प्रवाह है। मानव अस्तित्व स्वरस है। तंत्र शास्त्र में एक साधना है, जिसे ‘रस साधना’ कहते हैं। रस साधना का उद्देश्य है स्वरस को परम रस में मिला देना। रासलीला की धारणा का उद्भव इस भाव से हुआ है कि भगवान असंख्य भक्तों से घिरे हैं और प्रत्येक ‘स्वरस’ परम आतुरता से ‘परमरस’ में मिलने के लिए प्रयासरत है। इसे ही रासलीला कहते हैं। यहां साधक ईश्वर की इच्छा को ही अपनी इच्छा स्वीकार करेगा। साधक विनती करेंगे कि हे परम पुरुष, तुम्हारी ही इच्छा पूरी हो, मेरी नहीं। इसी तरह सेवा भी दो प्रकार की होती है। पहली, वा और दूसरी आंतरिक। वा सेवा का मर्म है कि विभिन्न लोगों और वर्गो के व्यक्तियों की आवश्यकता व अपनी क्षमतानुसार सेवा करना। वहींआंतरिक सेवा का मर्म अपने इष्ट की आंतरिक सेवा में निहित है। साधना काल में हम अनुभव करते हैं कि मन अक्सर भागता है, यह भटकाव साधना के मार्ग में बड़ी बाधा है। जब तक मन एकाग्र नहीं होगा, तब तक आप आंतरिक आनंद से वंचित रहेंगे।
श्री श्री आनंदमूर्ति
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