BLOG: गांधी, धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक लोकतंत्र – ABP न्यूज़

By: विनय लाल, प्रोफेसर | Updated : 02 Oct 2020 11:35 PM (IST)

चूंकि हमारी इस पुरातन भूमि के खुद को सर्वशक्तिमान समझने वाले लोग गांधी जयंती के अवसर का इस्तेमाल महात्मा गांधी की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण करने तथा सत्य और अहिंसा के सनातन मूल्यों के बारे में घिसे-पिटे उपदेश बघारने में करेंगे, वे मूल्य जो भारत में तार-तार किए जा रहे हैं, मैं अधिक विनम्रता और सादगी भरे कार्य का रुख कर रहा हूं, जिसमें इस बात की संक्षिप्त चर्चा करूंगा कि उस भारत में गांधी का कितना अंश शेष बचा है, जो लगातार एक हिंदू राष्ट्र बनने की दिशा में मुड़ता चला जा रहा है.
गांधी पर चौतरफा तेज और तीखे हमले हो रहे हैं. उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को कुछ भारतीयों द्वारा बलिदानी, एक सच्चा शहीद बता कर उसका अभिवादन और स्वागत किया जा रहा है. गांधी की प्रतिमाओं को तोड़ा-फोड़ा जा रहा है और सोशल मीडिया में उन पर क्रूरता और अत्याचार करने के अकल्पनीय लांछन लगाए जा रहे हैं. इसके बावजूद गांधी अपने जीवनकाल में भारत का पर्याय थे. एक बार जब नेहरू से पूछा गया था कि भारत क्या है, तो उनका संक्षिप्त जवाब था: “गांधी ही भारत हैं.”
भारत के बाहर भी उनकी प्रतिष्ठा और ख्याति पर लगातार हमले हो रहे हैं, अक्सर ये हमले भारतीय मूल के लोग करते हैं. कैलिफोर्निया की सेंट्रल वैली में लॉस एंजेलिस से करीब 250 किमी दूर स्थित फ्रेंसो नामक छोटे से शहर में बसे 5000 से ज्यादा सिखों ने एक याचिका पर दस्तखत करते हुए मांग की है कि स्थानीय स्टेट यूनिवर्सिटी के पीस गार्डन में स्थापित गांधी की एक अर्धप्रतिमा को हटा दिया जाए, क्योंकि वे भारत विभाजन के समय हुए सिखों के नरसंहार का जिम्मेदार गांधी को ठहराते हैं.
ऐसे युवा सिख विद्यार्थी, जिन्होंने अभी हाई स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं की है. दावा करते हैं कि जब वे “माय लाइफ इज माय मैसेज” उकेरी हुई गांधी की अर्धप्रतिमा के बगल से गुजरते हैं तो उन्हें “गहरा आघात” लगता है. क्या उन्हें पता भी है कि “आघात” का मतलब क्या होता है? ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के जाहिर तौर पर कुछ कमअक्ल कार्यकर्ताओं ने इसी तर्ज पर खुद को इस खयाल का कायल कर लिया है कि गांधी दिल से पूर्णतया एक बेरहम और बेदर्द नस्लवादी थे. वे अपनी सुखद मूर्खता में इस बात से अनभिज्ञ हैं कि यूनाइटेड स्टेट्स में अश्वेत नागरिक अधिकारों के हर प्रमुख नेता ने गांधी के कंधों पर सवार होने की सच्चाई स्वीकार की है. यह बात अफ्रीका के रंगभेद विरोधी संघर्ष में शामिल नेताओं और कार्यकर्ताओं तथा अफ्रीका में उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष खड़ा करने वाले अन्य दिग्गजों, जैसे कि केन्या के जोमो केनयाट्टा और घाना के क्वामे नक्रुमा के बारे में भी सच है.
कोई इस बात को भिन्न तरीके से भी पेश कर सकता है: सार्वजनिक दायरों में विचारों को लेकर कोई भी गंभीर विचार-विमर्श करना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है और इस मामले में गांधी अकेले नहीं है, जो पीड़ित हैं. इसी प्रकार यह अकेले भारत की ही बात नहीं है, जहां एक भयावह जातीय-राष्ट्रवाद का प्रदर्शन अदम्य रूप से जारी है. कुछ दिनों पहले मुझे यह पढ़ कर सुखद आश्चर्य हुआ कि भारत के विदेश मंत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि बुद्ध और गांधी भारतीय इतिहास के “दो महानतम भारतीय” हैं. यह एक व्यापक चर्चा और गंभीर बौद्धिक असहमति का विषय बन सकता था. इसकी जगह हुआ ये कि सबसे उल्लेखनीय प्रतिक्रिया नेपाल की ओर से आई, जिसमें वे बुद्ध को भारतीय बताने के लिए इस मंत्री पर टूट पड़े! बेशक बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में हुआ था, जो अब नेपाल में पड़ता है, लेकिन दिमाग को सुन्न कर देने वाली अस्मितावाद में डूबी ऐसी प्रतिक्रिया पर कुएं के मेढक वाला मुहावरा उपयुक्त बैठता है.
मुझे लगता है कि भारतीय दर्शन को लेकर बुद्ध की उक्तियों पर हुए गहरे मंथन वाली हजारों पुस्तकों, या बौद्ध विचारों की कसौटियों और सिद्धांतों से निकले उद्धरणों एवं निष्कर्षों पर कैंची चला देनी चाहिए, क्योंकि बुद्ध के भारतीय होने का दावा नहीं किया जा सकता. या शायद इन पुस्तकों को अब “नेपाली दर्शन” के साहित्य के रूप में वर्गीकृत कर दिया जाना चाहिए. दुर्भाग्य से ठीक उसी तरह, जैसे कि एक कायरतापूर्ण स्वीकृति में भारतीय विदेश मंत्रालय ने अविलंब माफी मांग ली और मान लिया कि बुद्ध “नेपाली” हैं. निस्संदेह इसके पीछे एक ‘पड़ोसी” के साथ दोस्ताना रिश्ते बरकरार रखने की सदिच्छा काम कर रही थी.
तो पब्लिक डोमेन में विचार, खासकर अप्रचलित विचार व्यक्त करने में चाहे जो भी मुश्किलें हों, इस लघु निबंध का मूल प्रस्ताव अब बहुत स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जा सकता है. यह कहे जाने की आवश्यकता है कि ऐसे दौर में जब “हिंदू गौरव” और “उग्र हिंदुत्व ” देश को अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं और देश के अनगिनत लोगों को अवांछित होने का अहसास करा रहे हैं, गांधी एक धर्मनिष्ठ हिंदू और धर्मनिरपेक्षता में अटल व दृढ़ विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे. वह बिना किसी लाग-लपेट के इस बात को लेकर स्पष्ट थे, खासकर अपने जीवन के आखिरी कुछ वर्षों में, कि धर्मनिरपेक्षता के साथ खड़ा रहना हर भारतीय के लिए अनिवार्य है.
धर्मनिरपेक्षता की थोड़ा विस्तारपूर्वक पद-व्याख्या करने से पूर्व इस बात को साहसिक शब्दों में कहना जरूरी है, क्योंकि बीजेपी “छद्म- धर्मनिरपेक्षता” के बारे में कई वर्षों से बकवास पैदा करती चली आ रही है और पिछले कुछ समय से वह भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता वाले विचार के कथित शिल्पकार के रूप में नेहरू के खिलाफ हिंसात्मक आचरण करने पर उतारू है. लेकिन सच्चाई यह है कि खुद गांधी हमेशा धर्मनिरपेक्षता के प्रति दृढ़तापूर्वक समर्पित रहे, हालांकि इसकी समझ उन्होंने विभिन्न स्रोतों से प्राप्त की थी. आप ज्यादा गहराई में जा सकते हैं और यह तर्क भी दे सकते हैं कि जब उन्होंने कलकत्ता, बिहार, नोआखाली, पंजाब और हर जगह सांप्रदायिक जुनून की लपटें भड़कती देखीं, तब उनकी राय बनी कि प्रत्येक भारतीय को अपना धर्म, धर्मनिरपेक्षता के आदर्श के अंतर्गत लाने के लिए तैयार रहना होगा.  29 जून, 1947 के हरिजन में लिखते हुए उन्होंने इस बात को इस तरह से प्रस्तुत किया था: “धर्म राष्ट्रीयता की परीक्षा कतई नहीं है, बल्कि यह मनुष्य और ईश्वर के बीच का निजी मामला है. राष्ट्रीयता के इस अर्थ में वे आद्योपांत भारतीय हैं, फिर चाहे वे किसी भी धर्म का पालन करते हों”.
हालांकि एक “धर्मनिष्ठ हिंदू” और “धर्मनिरपेक्षता में अटल व दृढ़ विश्वास रखने वाले व्यक्ति” के रूप में एक साथ चित्रित करते हुए मैं उनकी नेहरू से भिन्नता और इस तथ्य को इंगित करना चाहता हूं कि नेहरू के मुकाबले भारतीय संवेदनशीलता के साथ कहीं अधिक अनुसंगत एवं अभ्यस्त गांधी ने अपनी धर्मनिरपेक्षता को ढेर सारे स्रोतों से हासिल किया. साधारणीकरण करने का अपरिहार्य जोखिम उठाते हुए कहा जा सकता है कि नेहरू वाली धर्मनिरपेक्षता के विचार, सामान्यत: कह रहा हूं, पश्चिम की इनलाइटमेंट वाली परंपराओं से व्युत्पन्न हुए थे, विशेषतः व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता की बुर्जुआ धारणा से निकले थे.
ये वही परंपराएं हैं, जिन्होंने समय बीतने के साथ निजी और सार्वजनिक के बीच विभेद सुनिश्चित किया और धार्मिक विश्वासों को सख्ती से निजी वाले डोमेन के हवाले कर दिया. कुल मिलाकर गांधी सोचने की इस विधि से सहमत थे और बिना किसी हिचकिचाहट के उन्होंने ऐलान कर दिया था, अपने जीवन के आखिरी महीनों में एकाधिक बार, कि “धर्म हर व्यक्ति का निजी मामला है. इसका राजनीति या राष्ट्रीय मामलों के साथ घालमेल नहीं करना चाहिए.” (हरिजन, 7 दिसंबर, 1947). यहां तक कि इसके दस दिन बाद एक सार्वजनिक सभा में गांधी ने अपने हमवतनों से अपनी धार्मिक पहचान को त्याग देने और उसे अस्वीकार करने का आग्रह किया था: “कोई हिंदू, कोई पारसी, कोई ईसाई और कोई जैन न हो. हमें महसूस करना चाहिए कि हम केवल भारतीय हैं, और धर्म एक निजी मामला है.”
अगर गांधी की सोच इतने तक ही सीमित होती तो उनको नेहरू से अलगाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं बचता. एक ओर जहां नेहरू संदेहवादी (नास्तिक) थे, गांधी का भारत की धार्मिकता वाली परंपराओं के साथ एक ज्यादा जटिल और अगाध संबंध था. उनके धार्मिक वैश्विक-दृष्टिकोण का एक स्रोत भारत की भक्ति-सूफी परंपराएं थीं, और मैं तो बहस को इतनी दूर तक आगे बढ़ाऊंगा कि गांधी को संत परंपरा के आखिरी महान प्रतिनिधि की दृष्टि से देखा जाना चाहिए. उनकी तुलसीदास के प्रति श्रद्धा, बल्कि मैं इसे “विकट श्रद्धा” कहूंगा, से सभी परिचित हैं. लेकिन वांग्मय में इस पर जोर देने के कारण उनकी नरसिंह मेहता, मीराबाई और तुकाराम  में दिलचस्पी काफी हद तक अस्पष्ट हो गई है.
लेकिन हरिजन (31 अगस्त, 1947) के पृष्ठों पर उनकी टिप्पणी एक बार पुनः धर्म और सार्वजनिक दायरों को लेकर उनकी सोच के बारे में उल्लेखनीय संकेत प्रस्तुत करती है. उनका एक लंबा उद्धरण पेश है, “इस प्रकार सभी अधीनस्थ विषय कानून की नजर में बराबर होंगे. लेकिन प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी बाधा के अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र होगा, जब तक कि वह आम कानून का अतिक्रमण न करे. ‘अल्पसंख्यकों की सुरक्षा’ का सवाल मेरे लिए उपयुक्त और बेहतर नहीं है; यह उस राज्य के नागरिकों के बीच की धार्मिक समूहबंदी को चिह्नित करने पर निर्भर करता है. मैं भारत से यह चाहता हूं कि वह हर एक व्यक्ति के धर्म-पालन का अधिकार सुनिश्चित करे. ऐसा करने पर ही भारत महान हो सकता है. यह इसकी बदौलत है कि प्राचीन संसार में भारत शायद ऐसा इकलौता राष्ट्र था, जिसने सांस्कृतिक लोकतंत्र को मान्यता दी थी. इसी के चलते यह माना गया कि ईश्वर तक पहुंचने के अनेक मार्ग हैं, लेकिन लक्ष्य एक है, क्योंकि ईश्वर एक है और एक जैसा ही है. वास्तव में मार्गों की संख्या उतनी है जितने कि इस संसार में लोग मौजूद हैं.”
गांधी ईश्वर तक पहुंचाने वाले अनगिनत मार्गों का आह्वान करने के लिए अद्वैत के आदर्श का ध्यान दिला रहे थे. साथ ही साथ यह “सांस्कृतिक लोकतंत्र” का एक चरित्र-चित्रण और विशेषीकरण भी है. एक सजग और सावधान पाठक आपत्ति जता सकता है कि अभी तक गांधी के साहित्य और लेखन से ऐसा कुछ उद्धृत नहीं किया गया, जिसमें “धर्मनिरपेक्ष” शब्द का उल्लेख हुआ हो. यद्यपि वही पाठक “हर एक व्यक्ति को अपना धर्म-पालन करने की स्वतंत्रता” के बारे में गांधी के द्वारा अक्सर दोहराए गए कथनों, घोषणाओं और मतों के अंदर धर्मनिरपेक्षता की भावना को भांप सकता है.
लेकिन गांधी ने दरअसल धर्मनिरपेक्षता की स्पष्ट रूप से जोरदार और प्रभावपूर्ण वकालत की थी. यथार्थ तो यह है कि 31 अगस्त, 1947 के हरिजन में उनके लेख का अगला अवतरण कहता है: राज्य पूर्णरूपेण धर्मनिरपेक्ष होने को बाध्य है. मैं तो इस हद तक बात करूंगा कि इसके अंदर किसी भी जाति या संप्रदाय के शैक्षणिक संस्थान को संरक्षण नहीं मिलना चाहिए.” [इस बात पर अतिरिक्त जोर दिया गया है]. धर्मनिरपेक्षता “सांस्कृतिक लोकतंत्र” का सार-तत्व थी, उनके अध्ययन के अनुसार, जिसने भारतीय अतीत की लाक्षणिकता उजागर करते हुए उसका गुण व स्वभाव बतलाया तथा संभवतः अन्य राष्ट्रों से इसकी भिन्नता भी प्रतिपादित की. इस प्रकार जब गांधी ‘पूर्णरूपेण धर्मनिरपेक्ष” राज्य की मांग करते हैं, तो वह सांस्कृतिक लोकतंत्र के पुनर्नवीकरण की आवश्यकता पर बल दे रहे होते हैं; एक ऐसा पुनरारम्भ, जिसकी हर मोड़ पर बलात्‌ आवश्यकता है. यदि समकालीन भारत को धर्मनिरपेक्षता का विचार गले से उतारने में इतनी कठिनाई हो रही है, यहां तक कि वह इसे अपमानजनक मानकर चिड़चिड़ा और आक्रामक होता जा रहा है, वह मान कर चलता है कि धर्मनिरपेक्षता पश्चिम से आयात किया गया एक ऐसा विचार है, जिसने देश को  उपनिवेश बनाया और अभी भी हमारी सोच व कल्पना का उपनिवेशीकरण कर रहा है, तो ऐसे में क्या यह विचार “सांस्कृतिक लोकतंत्र” की अवधारणा के अंदर कोई राहत प्राप्त कर सकता है?
शायद इस बारे में सोचने का वक्त आ गया है कि “सांस्कृतिक लोकतंत्र” की भाषा किस तरह से सारे भारतीयों, खासकर असंतुष्ट एवं व्यथित हिंदुओं को यह आश्वासन देने के काम में लाई जा सकती है कि अतीत को छोड़े बिना भी किसी राष्ट्र के निर्माण का एक अन्य तरीका मौजूद है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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