इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ पब्लिक एडमिनेस्ट्रेशन, दिल्ली की महाराष्ट्र शाखा ने पूर्व केंद्रीय गृहसचिव डॉ. माधव गोडबोले को साल 2015-16 के बीजी देशमुख मेमोरियल लेक्चर देने बुलाया.
गोडबोले से कहा गया कि वे अपनी पसंद के विषय पर बोल सकते हैं. लेक्चर 4 अप्रैल को होना था. गोडबोले से उनका भाषण पहले भेजने को कहा गया ताकि लोगों को उपलब्ध कराया जा सके.
गोडबोले ने 11 मार्च, 2016 को 'क्या भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है?' मुद्दे पर भाषण भेजा. एक अप्रैल को उन्हें ईमेल के ज़रिए लेक्चर रद्द होने की सूचना दी गई. कोई वजह नहीं बताई गई.
गोडबोले की पहली प्रतिक्रिया तो यही रही है कि क्या हम आपातकाल के दिनों में आ गए हैं?
गोडबोले का मूल लेख तो काफ़ी लंबा है. उसकी पूरी प्रस्तुति संभव नहीं पर बीबीसी हिंदी उसके कुछ हिस्से अपने पाठकों के सामने रख रहा है.
समाप्त
क्या भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है? मेरा मानना है कि ये सवाल पूछा जाना चाहिए, इसके असर को देखना चाहिए और इसका ईमानदारी से जवाब दिए जाने की ज़रूरत है.
व्यक्तिगत तौर पर मेरा धर्मनिरपेक्षता पर पूरा भरोसा है. बहुधार्मिकता, बहुनस्लीय, बहुसांस्कृतिक देश की तौर पर भारत का अस्तित्व इस पर निर्भर है कि यहां धर्मनिरपेक्षता कितनी कामयाब है?
मौजूदा समय में, भारत में धार्मिक तौर पर अल्पसंख्यकों की आबादी 20 फ़ीसदी के आसपास है. इनमें मुसलमान 14.2 फ़ीसद हैं.
कुछ अनुमानों के मुताबिक़ आने वाले समय में, यह 25 फ़ीसदी के आसपास स्थिर हो सकता है. जिसमें मुस्लिमों की आबादी 20 फ़ीसदी के करीब होगी.
कोई भी समाज अपने एक चौथाई आबादी की उपेक्षा कर, हक से वंचित करके और अवांछित मानकर न तो संपन्न बन सकता है और न ही शांति से रह सकता है.
भारत में बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों और मुसलमानों के तुष्टिकरण की बहुत बातें होती हैं लेकिन जस्टिस सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से मुसलमानों के आर्थिक सामाजिक स्थित बहुत स्पष्टता से बताते हैं कि किस तरह से कुछ राजनीतिक पार्टियों की वोट बैंक समझे जाने वाला यह तबका इतने सालों से हाशिए पर है.
यह देखना भी दुखद है कि इस रिपोर्ट पर चर्चा के लिए संसद के पास समय नहीं है. इतना ही नहीं जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमीशन रिपोर्ट की अनुशंसाओं पर भी विचार करने का समय संसद के पास नहीं है.
वास्तविकता में, ऐसे में धर्मनिरपेक्षता अपनी सारी विश्वसनीयता गंवा चुकी है.
हालांकि भारतीय संविधान दुनिया के सबसे धर्मनिरपेक्ष संविधान है हालांकि इसके निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्षता शब्द को शामिल नहीं किया था. लेकिन आपातकाल के दौरान 1976 में संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द शामिल किया गया.
बहरहाल, पिछले कुछ समय में भारत की धर्मनिरपेक्षता को लेकर काफी सवाल उठ रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद पहली बार हिंदू राष्ट्र की विचारधारा पर इतने खुलेतौर पर बात हो रही है.
हालांकि जवाहरलाल नेहरू ने 6 सितंबर, 1951 को ही हिंदू राष्ट्र पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी- हिंदू राष्ट्र का केवल एक ही मतलब है, आधुनिक सोच को पीछे छोड़ना, संकीर्ण होकर पुराने तरीके से सोचना और भारत का टुकड़ों में बंटना.
बहरहाल, अगर सुप्रीम कोर्ट ने एसआर बोम्माई बनाम भारतीय गणराज्य (1994) मामले में स्पष्ट तौर पर धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान का मूलभूत बनावट का हिस्सा माना था और कहा था कि संसद को इसे कमतर करने का अधिकार नहीं है. हालांकि कुछ राजनीतिक पार्टियों ने इसके लिए लगातार कोशिशें जारी रखी हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में इस बारे में कहा था, ''भारत अब तक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन हम ये नहीं जानते हैं कि यह कितने लंबे समय तक धर्मनिरपेक्ष देश बना रहेगा.'' (इंडियन एक्सप्रेस, 10 फरवरी, 2015)
भारतीय संविधान की कई धाराओं से धर्मनिरपेक्षता का भाव जाहिर होता है. मसलन धारा 14 के तहत क़ानून की नज़र में एकसमान होना, धारा 15 के तहत धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव पर पाबंदी, धारा 16 के तरह तक सार्वजनिक रोजगार के क्षेत्र में सबको एक समान मौके मुहैया करना जैसी तमाम धाराएं शामिल हैं.
बावजूद इसके समाज के अंदर की स्थिति काफ़ी निराश करने वाली है. न तो बहुसंख्यक आबादी और न ही अल्पसंख्यक समुदाय पूरी तरह से धर्मनिरपेक्षता के मसले को समझ पाई है. धर्मनिरपेक्षता एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों के साथ जोड़ने के बदले समुदायों को अलग कर रहा है.
यह कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में नाकाम होने की वजह से भी है. इसमें हिंदुओं की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि ज़्यादातर नियम, क़ानून, पाबंदियां सब उनकी धार्मिक मान्यताओं और संस्थाओं पर ही हैं.
इसके अलावा समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का लागू न होना, इस्लामी महिलाओं के लिए अलग तलाक़ क़ानून, ख़ासकर आदिवासी इलाकों में और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों का मुस्लिमों और ईसाइयों द्वारा बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कराना और अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को संरक्षण देना भी शामिल है.
इसके अलावा भी देश में काफी ऐसी घटनाएं हुई हैं जो संदेह पैदा करती हैं कि ये कैसा धर्मनिरपेक्ष भारत है. एक तो भारत में राजनीति को धर्म से अलग करके नहीं देखा जाता है. इसके अलावा बाबरी मस्जिद को गिराना, 1984 में दिल्ली और दूसरे शहरों में हुए सिख विरोधी दंगे, दिसंबर, 1992 और जनवरी, 1993 में मुंबई में हुए भयानक दंगे, 2002 में गुजरात के गोधरा और अन्य शहरों में हुए दंगे देश में सांप्रदायिक भेदभाव और हिंसा की घटनाओं को बढ़ावा देते रहे हैं.
1954 से 1985 के बीच देश भर में करीब 8,449 सांप्रदायिक दंगे हुए हैं जिनमें 7,229 लोगों की मौत हुई है और 47,321 लोग घायल हुए हैं. हालात यहां तक बिगड़े हैं कि गोहत्या के नाम पर लोग क्या खाएं, इसकी आज़ादी भी उनसे छिन गई है, वे कौन सा पेशा अपनाएं या क्या कारोबार करें, इसकी भी आज़ादी छिनी है.
जहां तक यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात है, तो संविधान सभा की बैठकों में वल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू और अन्य दूसरे नेताओं के संबोधन से उपरी तौर पर यही ज़ाहिर होता है कि मुस्लिम नेता इस सिविल कोड को मानने के लिए तैयार थे, लेकिन अगर उनके संबोधनों को गंभीरता से देखा जाए तो ये साफ़ हो जाता है कि सभी मुस्लिम नेताओं, बिना किसी अपवाद के, ने यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध किया था.
इन लोगों ने इसे संविधान से हटवाया. इसके बाद से आज तक मुस्लिमों की स्थिति नहीं बदली. ये भी साफ़ है कि भारतीय जनता पार्टी सहित सभी राजनीतिक दल संसद में इस बिल को पारित नहीं करना चाहता.
उस वक्त में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद सहित कई दूसरे नेताओं ने भी हिंदू क़ानून में सुधार को सही नहीं बताया था लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने साहस करते हुए उसे लागू किया, हालांकि वे भी यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने का साहस नहीं दिखा पाए.
अगर उस वक्त में मुस्लिम क़ानूनों में सुधार को मंजूरी मिल जाती तो देश की सामाजिक और धार्मिक तस्वीर काफ़ी अलग होती.
वैसे, बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने भी भारत में धर्मनिरपेक्षता के अस्तित्व पर गंभीर सवाल उठाए थे. उस वक्त देश के प्रधानमंत्री रहे पीवी नरसिम्हाराव ने अपनी किताब अयोध्या 6 दिसंबर, 1992 में दावा किया है कि संविधान की पाबंदियों के चलते वे कोई कार्रवाई नहीं कर सके और उन्होंने ये भी कहा कि कांग्रेस पार्टी ने उन्हें बलि का बकरा बनाया.
इतिहास में यह अपनी तरह का इकलौता उदाहरण है जहां देश का प्रधानमंत्री खुद को बलि का बकरा बता रहा हो. नहीं तो चलन तो यही रहा है कि प्रधानमंत्री अपनी हर नाकामी के लिए बलि का बकरा तलाशते रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने 6 दिसंबर, 1992 की घटना के तुरंत बाद मस्जिद को बनाने का भरोसा दिया था, ये अब तक कागज़ों में ही है. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने राष्ट्रीय एकता परिषद, भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट को बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का भरोसा दिया था. अदालत की आदेश की अवमानना के चलते कल्याण सिंह पर महज 2000 रुपये का ज़ुर्माना हुआ था.
इस मामले की जांच करने के लिए बनी जस्टिस एम. लिब्रहान ने 17 साल तक इस मामले की जांच की और किसी को दोषी नहीं पाया.
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