क्या हिंदुओं को देश के कुछ राज्यों में अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है? – BBC हिंदी

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'जिन राज्यों में हिंदुओं की संख्या कम है वहां की सरकारें उन्हें अल्पसंख्यक घोषित कर सकती हैं'. 
ये जानकारी केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफ़नामा दाख़िल कर दी है. जिसके बाद सवाल उठने लगे हैं कि हिंदू बहुल भारत में क्या हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है? अगर राज्य सरकारें हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देती हैं तो उसका आधार क्या होगा और इससे हिंदुओं को क्या फायदा होगा ?  
ये हलफनामा केंद्र सरकार ने बीजेपी नेता और एडवोकेट अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका के बाद दायर किया है. याचिका में अश्विनी उपाध्याय ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्था आयोग की वैधता को चुनौती दी है.
बीबीसी से बातचीत में अश्विनी कुमार उपाध्याय ने बताया, ''2002 में सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की बेंच ने कह दिया था कि राष्ट्रीय स्तर पर भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं दिया जा सकता. दोनों की पहचान राज्य स्तर पर की जाएगी. लेकिन अभी तक राज्य स्तर पर गाइडलाइन क्यों तैयार नहीं की गई है जिससे अल्पसंख्यक समुदाय की पहचान की जा सके''. 
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इस मामले में वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर की थी
अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर 6 धर्मों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है. इसमें मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म शामिल है. केंद्र सरकार ने जैन धर्म को 2014 में और अन्य को 1993 में अल्पसंख्यक का दर्जा दिया था. 
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बीजेपी नेता और एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि अल्पसंख्यक को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है. बिना किसी आधार के अपनी मर्जी से सरकार ने अलग अलग धर्मों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया हुआ है. देश में यहूदी और बहाई धर्म के लोग भी हैं लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं मिला हुआ है. 
इसी याचिका के जवाब में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बताया कि जैसे महाराष्ट्र ने 2016 में यहूदियों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया था वैसे ही राज्य, धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक का दर्जा दे सकते हैं. कर्नाटक ने भी उर्दू, तेलुगू, तमिल, मलयालम, मराठी, तुलु, लमानी, हिंदी, कोंकणी और गुजराती को अपने राज्य में अल्पसंख्यक भाषाओं का दर्जा दिया है. 
गौर करने वाली बात ये है कि केंद्र सरकार ने कहा है कि सिर्फ राज्यों को अल्पसंख्यकों के विषय पर कानून बनाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता. इसका मतलब है कि राज्य चाहें तो ऐसा कर सकते हैं लेकिन केंद्र अपने स्तर पर अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर अधिसूचना जारी कर सकता है. 
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अल्पसंख्यकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए साल 1992 में अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया था. 
बीबीसी से बातचीत में 'अटल बिहारी वाजपेयी सीनियर फेलो' प्रो. हिमांशु रॉय बताते हैं, ''जिन लोगों को भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है उन्हें सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन, बैंक से सस्ता लोन और अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त शिक्षण संस्थानों में दाखिले के समय प्रमुखता मिलती है. उदाहरण के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी को धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा मिला हुआ है. यहां करीब 50 प्रतिशत सीटें मुस्लिम समाज के बच्चों के लिए आरक्षित है. यहां जाति आधारित कोटा सिस्टम नहीं चलता''
जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी जैसे कई अल्पसंख्यक संस्थान देश में हैं. अल्पसंख्यक समाज के लिए इस तरह के संस्थान खोलने में सरकार अलग से सहायता भी करती है. 
अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के मुताबिक 2014 के बाद से पारसी, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले करीब 5 करोड़ विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दी गई. सरकार का कहना है कि ऐसा करने से विशेषकर मुस्लिम लड़कियों के स्कूल छोड़ने की दर में काफी कमी आई है. मुस्लिम लड़कियों में स्कूल छोड़ने की दर 2014 से पहले 70 प्रतिशत थी जो अब घटकर 30 प्रतिशत से भी कम हो गई है. 
बीबीसी से बातचीत में मणिपुर राज्य अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन मोहम्मद अनवर हुसैन बताते हैं, ''अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों को स्कॉलरशिप जरूर मिलती है लेकिन फाइनेंशियली बहुत फायदा नहीं मिल पाता. मणिपुर में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के लिए नौकरी में भी आरक्षण की व्यवस्था नहीं है''
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भारत में हिंदुओं की आबादी करीब 78 फीसदी है लेकिन बहुसंख्यक हिंदुओं को देश में अल्पसंख्यक का दर्जा कैसे दिया जा सकता है. ये समझने के लिए कुछ राज्यों और केंद्र प्रशासित प्रदेश में हिंदुओं की आबादी पर गौर करना आवश्यक है. 
दरअसल पंजाब, लद्दाख, मिज़ोरम, लक्षद्वीप, जम्मू-कश्मीर, नागालैंड, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में हिंदुओं की आबादी के मुकाबले दूसरे धर्म के लोग ज्यादा हैं. मसलन पंजाब में सिख  57.69 प्रतिशत और हिंदू 38.49 प्रतिशत हैं. इसी तरह अरुणाचल प्रदेश में ईसाई 30.26 प्रतिशत और हिंदू आबादी 29.04 प्रतिशत है. 
इसी आधार पर बीजेपी नेता और एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय हिंदुओं के लिए अल्पसंख्यक दर्जे की मांग कर रहे हैं. वे इस लिस्ट में मणिपुर को भी जोड़ते हैं. 
बीबीसी से बातचीत में मणिपुर राज्य अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन मोहम्मद अनवर हुसैन बताते हैं, ''मणिपुर में हिंदू आबादी बहुसंख्यक हैं. मणिपुर में करीब 41 फीसदी हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. यहां हिंदुओं की आर्थिक स्थिति काफी अच्छी है. उनके पास बिजनेस और सबसे ज्यादा लैंड होल्डिंग है''
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2011 जनगणना के अनुसार पंजाब में सिख 57.69 प्रतिशत और हिंदुओं की आबादी 38.49 प्रतिशत है यानी पंजाब सिख बहुल राज्य है. 
बीबीसी से बातचीत में पंजाब राज्य अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन प्रो. इमानुएल नाहर बताते हैं कि राज्य को अपने स्तर पर भी अल्पसंख्यक समुदाय को नोटिफाई करना होता है. नोटिफाई करने के बाद ही उस समुदाय को शिक्षण संस्थानों और अन्य जगह प्रमुखता मिलती है. 
प्रो इमानुएल बताते हैं, ''अभी तक पंजाब में सिख धर्म को छोड़कर किसी भी दूसरे अल्पसंख्यक धर्म को नोटिफाई नहीं किया गया है. मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म को पंजाब में अल्पसंख्यक नहीं माना गया है. मैं कई बार ये सवाल उठा चुका हूं लेकिन कोई सुनवाई नहीं है. इन समुदायों को मिलने वाला फायदा सिर्फ एक धर्म उठा रहा है''. 
अगर पंजाब में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलता है तो क्या होगा ? इस सवाल के जवाब में प्रो इमानुएल कहते हैं इससे पंजाब के सिख समुदाय को मिलने वाले लाभ में सेंधमारी होगी जो सिख धर्म के लोगों को पसंद नहीं आएगा. 
अल्पसंख्यक होने का आधार क्या है ? अभी तक केंद्र सरकार किसी धर्म को अल्पसंख्यक का दर्जा देने को लेकर अधिसूचना जारी करती है जिसका राज्य पालन करते हैं. राज्य में आबादी के हिसाब से अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाएगा या उसका आधार कुछ और होगा ये अभी साफ नहीं है. ये राज्य सरकारें तय कर सकती हैं. 
देश में करीब 8 राज्य और केंद्रशासित प्रदेश ऐसे हैं जहां हिंदू आबादी 50 प्रतिशत से कम है. इनमें मणिपुर, पंजाब, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, नागालैंड, लक्षद्वीप और मिजोरम शामिल है 
जिन राज्यों में हिंदू बहुल नहीं है वहां हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग काफी पुरानी है. प्रो. हिमांशु रॉय बताते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय से इस मुद्दे को उठाया जा रहा है लेकिन केंद्र सरकार इससे बच रही थी. इससे नुकसान होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है. 
बीबीसी से बातचीत में प्रो हिमांशु रॉय बताते हैं, ''नागालैंड में ईसाई करीब 87 प्रतिशत हैं और हिंदू करीब 8 प्रतिशत. अगर किसी पार्टी को नागालैंड में अपनी सरकार बनानी है तो उसे ईसाई लोगों को अपने पक्ष में करना होगा. ऐसे में अगर वो पार्टी अल्पसंख्यक दर्जे के नाम पर हिंदुओं को लामबंद करती है तो इससे ईसाई समुदाय इससे नाराज हो सकता है. ऐसे में किसी दूसरी पार्टी को इसका फायदा पहुंच सकता है'' 
प्रो. हिमांशु रॉय के मुताबिक यही वजह है कि केंद्र सरकार इस मुद्दे को राज्य सरकार पर छोड़ना चाहती है.  
फिलहाल याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई टल गई है. अब 6 हफ्ते बाद इस पर सुनवाई हो सकेगी. कोर्ट ने केंद्र सरकार से चार हफ्ते में याचिका से जुड़े सभी मुद्दों पर जवाब दायर करने को कहा है. 
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