नेहरू से मोदी, धर्मनिरपेक्षता से लेकर प्रधानमंत्रियों की तीर्थयात्राओं तक – BBC हिंदी

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1933 में जवाहर लाल नेहरू ने महात्मा गांधी को एक पत्र में लिखा था, "जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई है धर्म के प्रति मेरी नज़दीकी कम होती गई है".
1936 में नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "संगठित धर्म के प्रति हमेशा मैंने दहशत ही महसूस की है. मेरे लिए हमेशा इसका मतलब अंधविश्वास, पुरातनपंथ, रूढ़िवादिता और शोषण से रहा है जहाँ तर्क और औचित्य के लिए कोई जगह नहीं है".
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लोकतंत्र में धर्म के प्रति नेहरू की सोच की पहली अग्नि परीक्षा 1950 में हुई जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू की इच्छा के ख़िलाफ़ गुजरात में सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार समारोह में जाने का फ़ैसला किया. ये वही मंदिर था जिसे 10वीं सदी में महमूद गज़नवी ने नेस्तानुबूद करके लूट लिया था.
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नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद के सोमनाथ जाने का इस आधार पर विरोध किया था कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के शासनाध्यक्ष को इस तरह के धार्मिक पुनरुत्थानवाद के साथ अपने को नहीं जोड़ना चाहिए. प्रसाद नेहरू की इस सलाह से सहमत नहीं हुए थे.
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मशहूर पत्रकार दुर्गा दास अपनी किताब 'इंडिया प़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर'में लिखते हैं, "राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू के एतराज़ का जवाब देते हुए कहा था, "मैं अपने धर्म में विश्वास करता हूँ और अपने-आप को इससे अलग नहीं कर सकता. मैंने सोमनाथ मंदिर के समारोह को सरदार पटेल और नवानगर के जाम साहेब की उपस्थिति में देखा है".
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धर्म के प्रति नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के परस्पर विरोधी विचारों की झलक एक बार फिर मिली थी जब 1952 में प्रसाद ने काशी जाकर कुछ पंडितों के पाँव धोए थे. नेहरू ने प्रसाद को उनके इस कृत्य पर नाराज़गी भरा पत्र लिखकर अपना विरोध जताया था. इस पर प्रसाद ने जवाब देते हुए लिखा था, "देश के सबसे बड़े पद का व्यक्ति भी अध्येता की उपस्थिति में बहुत नीचे आता है".
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इस विवाद के बाद से ही नेहरू तत्कालीन उप-राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन की तरफ़ झुकना शुरू हो गए थे. लाल बहादुर शास्त्री के सचिव रहे सीपी श्रीवास्तव उनकी जीवनी में लिखते हैं कि 'एक बार शास्त्रीजी ने नेहरू से अनुरोध किया कि वो कुंभ के मेले में स्नान करें. नेहरू ने शास्त्री के इस अनुरोध को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया था कि वैसे मुझे गंगा नदी से बहुत प्यार है. मैं कई बार इसमें डुबकी लगा चुका हूँ लेकिन कुंभ के मौके पर ऐसा नहीं करूँगा".
शास्त्री की गुरु गोलवलकर से मंत्रणा
नेहरू के विपरीत शास्त्री को अपनी हिंदू पहचान दिखाने से परहेज़ नहीं था लेकिन भारत की धार्मिक एकता के बारे में उन्हें कभी कोई शक नहीं रहा.
1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के समय उन्होंने पार्टी लाइन से परे जाकर आरएसएस के तब के प्रमुख गुरू गोलवलकर से सलाह लेने में कोई हिचक नहीं दिखाई.
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यही नहीं शास्त्री की ही पहल पर उन दिनों दिल्ली की ट्रैफ़िक व्यवस्था के संचालन का ज़िम्मा आरएसएस को दिया गया.
लालकृष्ण आडवाणी ने भी अपनी आत्मकथा 'माइ कंट्री माइ लाइफ़' में लिखा, 'नेहरू से उलट शास्त्री ने जनसंघ और आरएसएस को लेकर किसी तरह का वैमनस्य नहीं रखा.'
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इंदिरा गाँधी जब सत्ता में आईं तो वो समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी ध्वजवाहक थीं.
यहाँ तक कि अपने प्रथम कार्यकाल में उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ भी ईश्वर के नाम पर नहीं, बल्कि सत्यनिष्ठा के नाम पर ली थी. 1967 में उनके नेतृत्व की सबसे बड़ी परीक्षा तब हुई जब गौरक्षा आंदोलन कर रहे कई हज़ार साधुओं ने संसद भवन को घेर लिया.
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पुलिस की गोली से छह लोगों की मौत हो गई लेकिन इंदिरा गाँधी ने साधुओं की बात नहीं मानी.
उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल गौ रक्षा आँदोलन का समर्थन कर रहे मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा से पीछा छुड़ाने के लिए किया. इंदिरा गांधी ने नंदा को मंत्रिमंडल से हटा दिया.
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1980 आते-आते इंदिरा गांधी का झुकाव ईश्वर और मंदिरों की तरफ़ होने लगा था. 1977 में चुनावी हार और 1980 में उनके छोटे बेटे संजय गांधी की मौत ने इसमें एक बड़ी भूमिका निभाई थी.
कहा जाता है कि उनकी सोच में परिवर्तन करने का बहुत बड़ा श्रेय उनके रेल मंत्री कमलापति त्रिपाठी को था. मशहूर पत्रकार कुमकुम चड्ढ़ा अपनी किताब 'द मैरी गोल्ड स्टोरी – इंदिरा गांधी एंड अदर्स'में लिखती हैं, 'धर्म के मामले में कमलापति उनके गुरू बन गए. एक बार जब उन्होंने नवरात्र के बाद इंदिरा से कुंवारी कन्याओं के पैर धोकर उसका पानी पीने के लिए कहा तो इंदिरा थोड़ा झिझकीं. उन्होंने पूछा भी कि कहीं मैं बीमार तो नहीं हो जाउंगी? लेकिन इसके बाद विदेश में पढ़ी और फ़्रेंच बोलने वाली इंदिरा गाँधी ने उस रस्म को पूरा किया.'
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इसी दौरान इंदिरा गांधी दतिया के बगलामुखी शक्तिपीठ गई थीं. मंदिर के प्राँगण के अंदर धूमावती देवी का मंदिर था जहाँ सिर्फ़ विधवाओं को ही पूजा करने की अनुमति थी. जब इंदिरा गाँधी पहली बार वहाँ गईं तो धूमावती शक्तिपीठ के पुजारियों ने उन्हें प्रवेश नहीं दिया क्योंकि वहाँ ग़ैर हिंदुओं का प्रवेश वर्जित था. पीठ की नज़र में फ़िरोज गांधी से विवाह कर वो अब हिंदू नहीं रह गई थीं.
कुमकुम चड्ढ़ा लिखती हैं, 'इंदिरा ने कमलापति त्रिपाटी को फोन मिला कर उनसे तुरंत दतिया आने के लिए कहा. त्रिपाठी को पुजारियों को मनाने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा. अंत में उनका ये तर्क काम आया, 'मैं इनको लाया हूँ. आप इनको ब्राह्मण पुत्री समझ लें.' दिल्ली में वो अक्सर श्री आद्य कात्यायिनी शक्तिपीठ जाया करती थीं, जिसे आजकल छतरपुर मंदिर कहा जाता है.
ये मंदिर महरौली में उनके फ़ार्म हाउस के नज़दीक था. 1983 में इंदिरा गाँधी ने हरिद्वार में भारत माता मंदिरा का उद्घाटन किया था जिसको विश्व हिंदू परिषद के सहयोग से बनाया गया था.
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इंदिरा गाँधी के बेटे राजीव गाँधी वैसे तो खुद धार्मिक नहीं थे लेकिन अपने राजनीतिक सलाहकारों की सलाह पर उन्होंने 1989 में अयोध्या से अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत करते हुए रामराज्य का वादा किया था. शाहबानो केस पर आई विपरीत प्रतिक्रियाओं की तोड़ उन्होंने राम मंदिर का शिलान्यास करवाना निकाला था.
राजीव गाँधी ये चुनाव हार गए लेकिन ये किसी से छिपा नहीं रहा कि शाहबानो केस में मुस्लिम कट्टरपंथियों का समर्थन करने के बाद वो ये संदेश भी देना चाहते थे कि वो एक 'अच्छे हिंदू' भी हैं.
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ज़ोया हसन अपनी किताब 'कांग्रेस आफ़्टर इंदिरा' में लिखती हैं, 'उस समय राजीव गांधी के मुख्य सलाहकार अरुण नेहरू की सोच थी कि अगर वो राम मंदिर के मुदे पर थोड़ा लचीला रुख़ अपनाते हैं तो मुस्लिम कट्टरपंथियों का समर्थन करने पर उनकी जो आलोचना हो रही थी, उसका असर थोड़ा कम हो जाएगा.
काँग्रेस ने इस बात का अंदाज़ा ही नहीं लगाया कि विश्व हिंदू परिषद इस घटनाक्रम को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले कदम के तौर पर देखेगा और वास्तव में ऐसा हुआ भी.'
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नरसिम्हा राव का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हैदराबाद के निज़ाम के ख़िलाफ़ संघर्ष से शुरू हुई थी जहाँ उन्होंने हिंदू महासभा और आर्यसमाज के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम किया था. उनका पूरा जीवन सुबह की पूजा और वार्षिक तीर्थयात्रा के इर्दगिर्द घूमता था.
राव की शृंगेरी के शंकराचार्य से लेकर पेजावर स्वामी तक कई स्वामियों से घनिष्ठता थी. एनके शर्मा जैसे ज्योतिषी और चंद्रास्वामी जैसे कई तांत्रिक उनके बहुत नज़दीक थे.
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बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय वे प्रधानमंत्री थे. उनकी चिंता ये थी कि मुसलमान कांग्रेस का साथ छोड़ रहे हैं लेकिन उनकी उससे भी बड़ी चिंता थी कि हिंदुओं में भी ऊँची जाति और पिछड़ी जाति के लोग बीजेपी की तरफ़ बढ़ रहे हैं. उन्होंने एक बार मणिशंकर अय्यर से कहा था, आपको समझना होगा कि भारत एक हिंदू देश है.
सलमान ख़ुर्शीद ने नरसिम्हा राव के जीवनीकार विनय सीतापति को दिए इंटरव्यू में कहा था, 'राव साहब की ट्रेजेडी थी कि उन्होंने हमेशा एक राय बनाने की कोशिश की. वो हिंदू और मुस्लिम दोनों वोट बैंकों को खुश करना चाहते थे. राव मस्जिद भी बचाना चाहते थे, हिंदू भावनाओं की भी रक्षा करना चाहते थे और अपनेआप को भी बचाना चाहते थे. नतीजा ये रहा कि न तो मस्जिद बची, न ही हिंदू कांग्रेस की तरफ़ आए और उनकी खुद की साख तार-तार हो गई.'
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