संविधान दिवस पर जानिये भारत के संविधान की सबसे खास बातें – Prabhasakshi

दलितों को यह भय दिखाया जाता है कि कतिपय मनुवादी मानसिकता आरक्षण को खत्म कर बाबा साहब के बनाये संविधान को बदलना चाहती है लेकिन कभी इस प्रश्न को नहीं उठाया जाता कि मूल संविधान के साथ बुनियादी छेड़छाड़ क्यों और किस मानसिकता के साथ की गई है?

26 नवम्बर 1949 को हम भारतीयों का संविधान बनकर तैयार हुआ था। आज 72 वर्ष बाद हमारा संविधान क्या अपनी उस मौलिक प्रतिबद्धता की ओर उन्मुख हो रहा है जिसे इसके रचनाकारों ने भारतीयता के प्रधानतत्व को आगे रखकर बनाया था। आज इस सवाल को सेक्युलरिज्म और आधुनिकता के आलोक में विश्लेषित किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि मूल संविधान की इबारत में यह अवधारणा कहीं थी ही नहीं इसे तो 1976 में प्रस्तावना में जोड़ा गया है। यहां सवाल यह भी उठाया ही जाना चाहिये कि जिस दलित चेतना के नाम पर अक्सर संविधान को बाबा साहब अंबेडकर की अस्मिता के साथ जोड़ा जाता है क्या उसके साथ बुनियादी खिलवाड़ 1976 में ही नहीं हो गया है।
दलित वर्ग को यह भय अक्सर दिखाया जाता रहा है कि कतिपय मनुवादी मानसिकता आरक्षण को खत्म कर बाबा साहब के बनाये संविधान को बदलना चाहती है लेकिन कभी इस प्रश्न को नहीं उठाया जाता कि मूल संविधान के साथ बुनियादी छेड़छाड़ क्यों और किस मानसिकता के साथ की गई है? आज इस बात पर सँवाद होना ही चाहिये कि क्या मौलिक रूप से भारत का संविधान उस सनातन जीवन दृष्टि से शासन और राजनीति को दूर रहने की हिदायत देता है? जिसको आधार बनाकर पिछले 75 वर्षों में इस देश की संसदीय राजनीति और प्रशासन को परिचालित किया जा रहा है। अगर हम मूल संविधान की प्रति उठाकर पन्नों को पलटते हैं तो हमें उसके अंदर सुविख्यात चित्रकार नन्दलाल बोस की कूची से बनाये हुए कुल 22 चित्र नजर आते हैं। इन चित्रों के आधार पर ही हम समझ सकते है कि हमारे संविधान निर्माताओं के मन और मस्तिष्क में कैसे आदर्श भारतीय समाज की परिकल्पना रही होगी। इन चित्रों की शुरुआत मोहनजोदड़ो से होती है और फिर वैदिक काल के गुरुकुल, महाकाव्य काल के रामायण में लंका पर प्रभु राम की विजय, गीता का उपदेश देते श्रीकृष्ण, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार (मौर्य काल), गुप्त वंश की कला जिसमें हनुमानजी का दृश्य है, विक्रमादित्य का दरबार, नालंदा विश्वविद्यालय, उड़िया मूर्तिकला, नटराज की प्रतिमा, भागीरथ की तपस्या से गंगा का अवतरण, मुगलकाल में अकबर का दरबार, शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह, टीपू सुल्तान और महारानी लक्ष्मीबाई, गांधी जी का दांडी मार्च, नोआखली में दंगा पीड़ितों के बीच गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, हिमालय का दृश्य, रेगिस्तान का दृश्य और महासागर का दृश्य शामिल है।

इन 22 चित्रों के जरिये भारत की महान परम्परा की कहानी बयां की गई है। इनमें राम, कृष्ण, हनुमान, बुद्ध, महावीर, विक्रमादित्य, अकबर, टीपू सुल्तान, लक्ष्मीबाई, गांधी और सुभाष क्यों हैं? क्या केवल संविधान की किताब को कलात्मक कलेवर देने के लिये? शायद बिल्कुल नहीं। असल में यह चित्र भारत के लोकाचार और मूल्यों का प्रतिनिधित्व देने के लिये नन्दलाल बोस से बनवाये गए। यही चित्र संविधान की इबारत के जरिये शासन और सियासत के अभीष्ट निर्धारित किये गए थे। सवाल यह है कि इन्हीं 22 चित्रों में नन्दलाल बोस ने रंग क्यों भरा है संविधान की पुस्तक में? इसका बहुत ही सीधा और सरल जवाब यही है कि ये सभी चित्र भारत के महान सांस्कृतिक जीवन और विरासत के ठोस आधार हैं। ये सभी चित्र भारत की अस्मिता के प्रामाणिक दस्तावेज हैं जिनके साथ हर भारतवासी एक तरह के रागात्मक अनुराग  जन्मना महसूस करता है। राम, कृष्ण, हनुमान, गीता, बुद्ध, महावीर, नालंदा, गुरु गोविंद असल में हजारों साल से भारतीय लोकजीवन के दिग्दर्शक हैं। जाहिर है संविधान की मूल रचना में इन्हें जोड़ने के पीछे यही सोच थी कि भारत की आधुनिकता और विकास की यात्रा इन जीवनमूल्यों के आलोक में ही निर्धारित की जाना चाहिये। लेकिन दुःखद अनुभव यह है कि पिछले कुछ दशकों ने भारतीय संविधान निर्माताओं की भावनाओं के उलट देश के शासनतंत्र और चुनावी राजनीति के माध्यम से भारत के लोकजीवन को धर्मनिरपेक्षता के शोर से दूषित करने का प्रयास किया गया है। यही धर्मनिरपेक्षता की राजनीति भारत के आधुनिक स्वरूप की समझ और स्वीकार्यता को खोखला साबित करने के लिये पर्याप्त इसलिये है क्योंकि परम्परागत भारत और आधुनिक भारत के मध्य जिस संविधान के प्रावधानों को अलगाव का आधार बनाया जाता है असल में वे आधार तो कहीं संविधान के दर्शन में हैं ही नहीं।
इसलिये सवाल यह है कि क्या 75 साल से संविधान की विकृत व्याख्या के जरिये इस देश की सियासत और प्रशासन को परिचालित किया जा रहा है? जिस राम, कृष्ण, हनुमान को शासन के स्तर पर सेक्युलरिज्म के शोर में अछूत मान लिया गया क्या वे संविधान निर्माताओं के लिये भी अस्पृश्य थे? क्या राम की मर्यादा, कृष्णा का गीता ज्ञान, हनुमान का शौर्य, बोस की वीरता, गुरुकुल की शैक्षणिक व्यवस्था, गांधी के राम राज्य, अकबर का सौहार्द, बुद्ध की करुणा, महावीर की शीलता, गुरुगोविंद सिंह का बलिदान, टीपू और लक्ष्मीबाई के शौर्य का अक्स भारत के साथ समवेत होने से हमारी आधुनिकता में कोई ग्रहण लगाने का काम करता है? हमारे पूर्वजों ने तो ऐसा नहीं माना इसीलिए मूल संविधान में इन सभी प्रतीकों का समावेश डंके की चोट पर किया है क्योंकि भारत कोई जमीन पर उकेरी गई या जीती गई या समझौते से बनाई गई भौगोलिक सरंचना मात्र नहीं है, यह तो एक जीवंत सभ्यता है जो सृष्टि के सर्जन के समानांतर चल रही है।

26 नवम्बर 1949 को जिस संविधान सभा ने नए विलेख को आत्मार्पित, आत्मसात किया है असल मे वह परम्परा और आधुनिक भारत के सुमेलन का उद्घोष मात्र था। लेकिन कालान्तर में यह धारणा मजबूत हुई कि आधुनिक भारत का आशय सिर्फ पश्चिमी नकल, परंपरागत भारत के विसर्जन के साथ हिन्दू जीवन शैली को अपमानित करने से ही है। इसी बुनियाद पर भारत के शासन तंत्र को बढ़ाने की कोशिशें की गईं। जबकि यह भुला दिया गया कि जिस सनातनी संस्कार से परम्परागत भारत भरा है वही आधुनिक भारत को वैश्विक स्वीकार्यता दिला सकता है। दुनिया में शांति, सहअस्तित्व, पर्यावरण सरंक्षण जैसे आज के ज्वलंत संकटों का समाधान आखिर किस सभ्यता और सेक्युलरिज्म के पास है? सिवाय हमारे उन आदर्शों के जिन्हें आधुनिक लोग पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं।

हमें यह याद रखना चाहिये कि जब तक सनातन सभ्यता की व्याप्ति सशक्त नहीं होगी भारत दुनिया में अपनी वास्तविक हैसियत हासिल नहीं कर सकता है। दुर्भाग्य से इसी आधार को शिथिल करने में एक बहुत बड़ा वर्ग लगा हुआ है। हमारे पूर्वजों के पास अद्भुत दिव्यदर्शन था इसलिए उन्होंने भारत को धर्मनिरपेक्ष नहीं बनाया बल्कि धर्मचित्रों को आगे रखकर लोककल्याण के निर्देश स्थापित किये। धर्म हमारी विरासत में इस्लाम या ईसाइयत की तरह पूजा पद्धति नहीं कर्तव्य का विस्तार है। कर्तव्य भी किसी धर्म विशेष तक सीमित नहीं है इसे समझने के लिये भारत की संसद के द्वार पर उकेरी गई पंक्ति को देखिये 

“लोक देवेंरपत्राणर्नु
पश्येम त्वं व्यं वेरा”

मतलब- लोगों के कल्याण का मार्ग खोल दो उन्हें बेहतरीन सम्प्रभुता का मार्ग दिखाओ।
संसद के सेंट्रल हाल के द्वार पर लिखा है-

”अयं निज:परावेति गणना लघुचेतसाम उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम’

भारत सरकार का ध्येय वाक्य “सत्यमेव जयते” है। इन उद्घोष में सम्पूर्ण मानव के कल्याण और सद्गुणों की चर्चा है इसलिए संविधान निर्माताओं की गहरी अंतर्दृष्टि को हमें समझना होगा।

आज योग दुनिया में लोकस्वास्थ्य का मंत्र बन रहा है। अयोध्या में राम की प्रामाणिकता को सर्वोच्च अदालत स्वीकृति दे चुकी है। करोड़ों भारतीय समरस होकर अपनी वैभवशाली विरासत पर गर्व कर रहे हैं। डेटा की ताकत ने आज हमारे युवाओं को राम, कृष्ण, गांधी और गीता के प्रति सजग किया है तो यह उन पूर्वजों के सपने को साकार करने की चहलकदमी ही है जिसे आज के दिन दस्तावेजों में कल्पित किया था।

आशा कीजिये आने वाले भारत में नन्दलाल बोस के उकेरे गए चित्र आमजन और नेतृत्व को अनुप्राणित और आत्मप्रेरित करते रहेंगे। एक भारत श्रेष्ठ भारत के निर्माण के एकमात्र उत्प्रेरक होंगे।

-डॉ. अजय खेमरिया
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