आजादी मिलने के 75 साल बाद भारत धीरे धीरे एक धर्मनिरपेक्ष, बहुसांस्कृतिक देश से हिंदू वर्चस्ववादी देश में बदल रहा है. सामाजिक कार्यकर्ता और अल्पसंख्यक गुटों का यही मानना है.
भारत ने 1947 में जब ब्रिटेन से आजादी हासिल की थी तब उसकी नींव रखने वालों ने एक आजाद, धर्मनिरपेक्ष और बहुसांस्कृतिक देश की कल्पना की थी. अगले 75 सालों में दक्षिण एशियाई देश गरीबी के चंगुल से निकल कर दुनिया में सबसे तेज विकास करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गया.
निरंकुश चीन जैसे पड़ोसी देश की तुलना में यह काफी ज्यादा लोकतांत्रिक है.
आजादी के बाद से ही भारत में लगातार चुनाव हो रहे हैं और शांति के साथ सत्ता परिवर्तन, स्वतंत्र न्यायपालिका और एक विशाल चमचमाते मीडिया की जमीन तैयार हो गई है. हालांकि बहुत से असंतुष्ट लोग कहते हैं कि 2014 से सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार देश को धर्मनिरपेक्ष चरित्र के मामले में पीछे ले कर जा रही है.
1989 से ही मोदी की भारतीय जनता पार्टी का सिद्धांत और विश्वास “हिंदुत्व” में रहा है. यह राजनीतिक विचारधारा हिंदू धर्म के “मूल्यों” को भारतीय समाज और संस्कृति की आधारशिला के रूप में बढ़ावा देती है.
ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव विमिंस एसोसिएशन की कविता कृष्णन का कहना है, “मोदी का शासन ऐसे वैधानिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक बदलाव ला रहा है जो भारत को धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य से निरंकुश हिंदू वर्चस्ववादी देश में बदलना चाहते हैं. यही वजह है कि मैं मोदी की राजनीति के लिये हिंदू वर्चस्ववादी शब्द को वरीयता देती हूं.”
आजादी के बाद से भारत को अपने बहुसंस्कृतिवाद पर गर्व रहा है, भले ही कई बार यह देश रक्तरंजित कट्टरपंथी हिंसा से जूझता रहा है. भारत की 1.4 अरब की आबादी में हिंदू भारी बहुमत में हैं और हाल के वर्षों में धार्मिक दक्षिणपंथी गुटों से की ओर से इसे हिंदू राष्ट्र घोषित करने और कानून में हिंदू वर्चस्व लाने की मांग बढ़ती जा रही है.
बीजेपी के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के साथ मिल कर इस मांग ने अल्पसंख्यकों को अलग थलग कर दिया है, खासतौर से मुसलमानों को. देश में रहने वाले 21 करोड़ मुसलमानों को हाल के वर्षों में लगातार नफरती भाषणों और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है.
कुछ गुट तो यह भी कहते हैं कि बीजेपी की आक्रामक हिंदुत्व की नीति धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ “दूसरे दर्जे के नागरिकों” जैसा व्यवहार करती है. 2019 के सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट यानी सीएए में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से 2015 के पहले आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई आप्रवासियों को जल्दी से नागरिकता देने की व्यवस्था बनाई गई. आलोचक कहते हैं कि इसने मुसलमानों को इस अधिकार से वंचित कर दिया.
2020 में दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंसक दंगे हुए और इनकी शुरुआत सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों से हुई थी. हाल ही में एक राज्य ने हिजाब पर स्कूलों और कॉलेजों में प्रतिबंध लगा दिया जिसके बाद दक्षिण भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ गया और विरोध प्रदर्शन हुए.
बीजेपी शासित कुछ राज्यों ने कथित मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के घर और दुकानें गिराने के लिये बुल्डोजरों का इस्तेमाल किया है. इस कदम को सामूहिक सजा का एक रूप मानते हुए इसकी निंदा की जाती है. हिंदु गुट कई इस्लामिक स्थलों पर यह कह कर दावा करते हैं कि उन्हें मुस्लिम शासन के दौरान मंदिरों के ऊपर बनाया गया.
लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता सायरा शाह हलीम ने डीडब्ल्यू से कहा कि बढ़ते धार्मिक राष्ट्रवाद के आगे संघर्ष कर रही पुरानी उदार व्यवस्था भारत की दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में पहचान को कमजोर कर रही है और एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में इसके भविष्य पर संदेह पैदा हो रहा है.
सायरा ने कहा, “हिंदू राष्ट्रवाद के साथ अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के प्रति नफरत नहीं होनी चाहिए. इस नफरत को अधिकारी बढ़ावा दे रहे हैं और इसके लिये कोई सजा नहीं मिलने के कारण मुसलमानों का दमन व्यापक होता जा रहा है.”
हालांकि बीजेपी लगातार मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव से इनकार करती है. बीजेपी प्रवक्ता शाजिया इल्मी इस आलोचना को खारिज करती हैं कि पार्टी इस तरीके से एक राष्ट्रीय पहचान गढ़ रही है जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यक बाहर या फिर हाशिये पर हैं.
इल्मी ने डीडब्ल्यू से कहा, “भारत विविध संस्कृतियों का घर है जहां अलग अलग धर्म और संप्रदाय के लोग सामंजस्य के साथ रहते हैं. भारत के पास दुनिया को शांति के रास्ते पर ले जाने में नेतृत्व का नैतिक और आध्यात्मिक अधिकार है.”
बीजेपी की दलील है कि आजादी के बाद भारत पर पांच दशकों से ज्यादा शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी अलग अलग धार्मिक समुदायों में चरमपंथी तत्वों को बढ़ावा दे कर धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करने के लिये जिम्मेदार है.
देश में बढ़ते विभाजन की वजह से हिंदुओं और मुसलमानों में आपसी संदेह बढ़ रहा है और इस वजह से निजी रिश्ते कमजोर हो रहे हैं साथ ही असहिष्णुता बढ़ रही है. उत्तर प्रदेश के कानपुर में इंजीनियर कुर्बान अली ने डीडब्ल्यू को बताया कि हर साल इस इलाके के हिंदू ईद मनाने के लिये उनके घर आते थे. यह परंपरा कई सालों से चली आ रही थी. अली ने बताया, “लेकिन इस साल कोई हिंदू हमें मुबारकबाद देने नहीं आया. यह बहुत अनोखा था क्योंकि हर साल वो हमारे जश्न का एक अहम हिस्सा होते थे. देश में जीवन बदल गया है.”
हाल ही में छपी किताब, “अनमास्किंग इंडियन सेक्यूलरिज्म” के लेखक हसन सुरूर ने डीडब्ल्यू से कहा कि सांप्रदायिक सद्भाव को बहाल करने के लिए एक रोडमैप बनाने की तत्काल बहुत जरूरत है इससे पहले कि सुधारों के लिये देर हो जाये.
सुरूर ने कहा, “यह विचार कि हिंदुओं का भारत पर पहला हक है वह गहराई से पैठ बना रहा है, यहां तक कि बहुत से उदारवादियों में भी. किसी भी टिकाऊ समाधान के लिये यह जरूरी होगा कि पिछले एक दशक में ‘हिंदूकरण’ की वास्तविकता को पहचाना जाये.”
सुरूर ने यह भी कहा, “यह धर्मनिरपेक्षता को पूरी तरह से छोड़ देने या हिंदू धर्मशासित देश को अचानक गले लगाने की मांग नहीं है, बल्कि एक ऐसे मॉडल की तलाश है जो वर्तमान दौर की राजनीतिक और सामाजिक सच्चाइयों के हिसाब से हो.”
सुरूर ने कहा कि आदर्श की बजाय सच्चाई पर आधारित एक नये करार की जरूरत है जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों और बहुसंख्यक आबादी की संवेदनशीलता के बीच संतुलन बना सके.
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