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बनारस में एक इंस्टीट्यूट है, जिसका नाम है एलिस बोनर इंस्टीट्यूट. 1889 में इटली में जन्मी स्विस मूल की एक पेंटर, स्कल्पचर आर्टिस्ट और कला की इतिहासकार एलिस बोनर ने इस इंस्टीट्यूट की स्थापना की थी.
लेकिन उनके हिंदुस्तान आने की कहानी भी बड़ी रोचक है.
1925 का साल था. उस दिन ज्यूरखि शहर में हिंदुस्तान से आए एक कलाकार का शो होना था. एलिस यूं ही घूमते हुए उस परफॉर्मेंस को देखने पहुंच गईं. तब तक वो उस कलाकार के बारे में कुछ नहीं जानती थीं, जिसे वो देखने वाली थीं. उस दिन मंच पर उन्होंने जो देखा, वो मानो इस धरती से परे किसी दूसरे ब्रम्हांड की बात हो. मनुष्य अपनी आंखों, हथेलियों, उंगलियों, और समूची देह-भंगिमा से इतने भाव प्रकट कर सकता है. प्रेम, दुख, पीड़ा, स्नेह, तड़प, जीवन-मृत्यु सबकुछ उस दिन उस मंच पर ऐसे उतर आया कि वो सारी छवियां कैमरे से खींची गई तस्वीरों की तरह एलिस की स्मृतियों में हमेशा के लिए फ्रीज हो गईं.
उस दिन मंच पर जो कलाकार नृत्य कर रहा था, उसका नाम था उदय शंकर. भारत के महान नर्तक उदय शंकर. भारतीय नृत्यकला के इतिहास के शिखर पुरुष उदय शंकर. भारतीय आधुनिक नृत्य कला के जन्मदाता उदय शंकर. नृत्यकला में जेंडर पूर्वाग्रहों को चुनौती देने वाले उदय शंकर. देश का गौरव उदय शंकर.
आज उयर शंकर का जन्मदिन है. आज से 122 साल पहले 8 दिसंबर, 1900 को राजस्थान के उदयपुर में उदय शंकर का जन्म हुआ था.
उदय शंकर चौधरी का जन्म एक महाराष्ट्रियन ब्राम्हण परिवार में हुआ था. पिता श्याम शंकर चौधरी राजस्थान के झालावाड़ में महाराजा के वकील थे. मां हेमांगिनी देवी एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखती थीं. उदय चार भाई थे, जिनमें सबसे छोटे रविशंकर महान सितारवादक हुए.
बैले राधा-कृष्ण में उदय शंकर और अन्ना पाव्लोवा
पिता संस्कृत के बड़े विद्वान हुआ करते थे, जिन्होंने पहले कलकत्ता यूनिवर्सिटी और फिर ऑक्सफोर्ड से पढ़ाई की थी. चूंकि पिता को काम के सिलसिले में काफी यात्राएं करनी पड़ती थीं, तो उदय का अधिकांश बचपन अपनी मां और भाइयों के साथ मां के शहर में मामा के घर नसरतपुर में बीता. उनकी प्राइमरी शिक्षा नसरतपुर के पास बरही गांव की स्थानीय प्राथमिक पाठशाला में हुई थी.
घर में हमेशा से संगीत और कला का माहौल था. पिता खुद कला, संगीत आदि के शौकीन थे. हालांकि अपने जीवन में वे कलाकार तो नहीं हो पाए, लेकिन कला को हमेशा प्रश्रय और बढ़ावा दिया. बाद में जब वे महाराज की नौकरी छोड़कर लंदन जाकर बस गए थे और वहां उन्होंने एक अंग्रेज महिला से दूसरा विवाह किया था, तब अपनी बैरिस्टरी के साथ-साथ वो एक और चीज के लिए ख्यात हुए. कलाकारों को आर्थिक सहयोग और प्रश्रय देने के लिए. वहां वे म्यूजिक कॉन्सर्ट, ऑपेरा आदि का आयोजन करते.
18 बरस की उम्र में उदय मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में पढ़ने चले गए और फिर वहां से गंधर्व विद्यालय भी गए. 23 साल की उम्र में वे अपने पिता के पास लंदन चले गए और वहां रॉयल कॉलेज ऑफ आर्ट में कला का विधिवत प्रशिक्षण लेने लगे.
उदय शंकर की फॉर्मल ट्रेनिंग तो चित्रकला में ही थी. नृत्य का उन्होंने कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था, लेकिन कई बार उन्होंने पिता के द्वारा आयोजित कांसर्ट में यूं ही मंच पर नृत्य किया था. उस शो का नाम था- ‘डांस ऑफ शिवा.’ ऐसे ही एक बार जब वो मंच पर नृत्य कर रहे थे तो सामने दर्शकों में एक महिला बहुत ध्यान से उदय शंकर को देख रही थी. यह महिला कोई और नहीं बल्कि रूस की विख्यात बैले डांसर अन्ना पाव्लोवा थीं.
अन्ना पाव्लोवा का उदय शंकर के जीवन और कॅरियर पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और यहीं से उनकी यात्रा नृत्य की ओर मुड़ गई.
1948 में बनी हिंदी फ़िल्म ‘कल्पना’ में उदय शंकर और अमला शंकर
अन्ना पाव्लोवा भारतीय कला और इतिहास पर आधारित एक बैले डांस करने की सोच रही थीं. इसके लिए उन्हें ऐसे लोगों की तलाश थी, जिन्हें नृत्य के साथ-साथ भारतीय कला परंपरा का ज्ञान हो. उन्होंने उदय को याद किया.
उदय तब तक रोम जा चुके थे. उन्हें फ्रांस की सरकार की तरफ से प्रतिष्ठित Prix de Rome स्कॉलरशिप मिली थी और अब वह फ्रांस में रहकर अपनी चित्रकला को और निखारने का काम कर रहे थे.
अन्ना पाव्लोवा उदय से मिलने रोम पहुंची. बताया कि वह राधा-कृष्ण नाम से हिंदू माइथोलॉजी पर आधारित एक बैले तैयार कर रही हैं. उन्होंने उदय से इस बैले में शामिल होने की गुजारिश की और वो मान गए. 1923 में लंदन के रॉयल ऑपेरा हाउस में राधा-कृष्ण का पहला शो हुआ था, जिसमें उदय ने कृष्ण और अन्ना ने राधा की भूमिका निभाई थी. इस शो को देखने के लिए बाहर लोगों की भीड़ लगी थी. अगले दिन अखबारों में आर्ट क्रिटीक्स ने जो लिखा, वह एक नए इतिहास के सृजन का उद्घोष था.
उदय शंकर ने अन्ना पाव्लोवा के साथ मिलकर भारतीय कला, पारंपरिक नृत्य विधा को एक नया आराम दिया था. यह पूरब और पश्चिम की कलाओं के मेल से बना एक नया अद्वितीय अनुभव था. लंदन के बाद अमेरिका और फिर पूरी दुनिया में ‘राधा-कृष्ण’ के शो हुए. उन्होंने तकरीबन दो बरस तक अन्ना पाव्लोवा के साथ काम किया. फिर स्वतंत्र रूप से अपना काम शुरू किया.
उदय शंकर एक स्थापित नर्तक बन चुके थे.
उस दिन ज्यूरिख में एलिस बोनर ने जो शो देखा था, वो यही राधा-कृष्ण की कहानी पर आधारित बैले था. शो खत्म होने के बाद एलिस उदय से मिलीं और उनसे गुजारिश की कि वे उनकी नृत्य मुद्राओं के स्केचे बनाना चाहती हैं. उदय मान गए. चूंकि बोनर एक चित्रकार और मूर्तिकार दोनों थीं तो उन्होंने उदय शंकर की नृत्य मुद्राओं के स्केच और मूर्तियां दोनों बनाईं. ये मूर्तियां ज्यूरिख, जिनेवा और बाडेन में सार्वजनिक पार्कों में रखी गई. लोग एलिस की कला और उदय की मुद्राओं से अभिभूत थे.
1927 में पेरिस में एक बार फिर दोनों की मुलाकात हुई. इस बार अपनी नृत्य मंडली के साथ उदय हिंदुस्तान वापसी की योजना बना रहे थे. एलिस पहले से भारतीय कला परंपरा के मोह में थीं. इस बीच उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में बहुत कुछ पढ़ा-जाना था. वो उदय के साथ भारत आना चाहती थीं. उदय एलिस बोनर और फ्रेंच पियानिस्ट सिमोन बार्बियरे के साथ हिंदुस्तान आ गए. यहां रवींद्रनाथ टैगोर ने स्वयं उन तीनों की अगवानी की. रवींद्रनाथ ने ही उदय को एक नृत्य विद्यालय खोलने के लिए भी राजी किया था.
भारत आने के बाद एलिस ने उदय शंकर के साथ पूरे देश की यात्रा की और चित्र बनाए. अपनी यात्रा के दौरान जब वो बनारस पहुंची तो इस जगह ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया. वो जो एक बार आईं तो फिर कभी लौटकर नहीं गईं. वहीं बनारस में दसासुमेर घाट पर उनका घर था, जहां वो आजीवन रहीं. बहुत से स्थानीय लोग उस जगह को एलिस घाट के नाम से भी जानते हैं.
1938 में उदयशंकर उत्तराखंड के अल्मोड़ा में जाकर बस गए. वहां एक छोटे से गांव सिमतोला में उन्होंने ‘उदयशंकर इंडिया कल्चरल सेंटर’ की स्थापना की. वो इसे एक विश्वस्तरीय आर्ट सेंटर बनाना चाहते थे, जहां दुनिया भर से नृत्य प्रेमी आकर सीख सकें और कला का दुनिया में प्रसार हो.
अल्मोड़ा उस जमाने में देश-दुनिया के महान कलाकारों और स्वप्नजीवियों का केंद्र हुआ करता था. कथकली के महान कलाकार शंकरण नम्बूदरी, भरतनाट्यम के कण्डप्पन पिल्लई, मणिपुरी नृत्य के अम्बी सिंह वहां नृत्य सिखाने जाते थे. इसके अलावा गुरुदत्त, ज़ोहरा सहगल, लक्ष्मी शंकर, शांता गांधी, अमला शंकर, अली अकबर खान, शांति बर्धन, नरेंद्र शर्मा, रुमा गुहा ठाकुरता, सत्यवती, प्रभात गांगुली, सचिन शंकर और गुरुदत्त भी ‘उदयशंकर इंडिया कल्चरल सेंटर’ से जुड़े हुए थे.
उदयशंकर इंडिया कल्चरल सेंटर के कलाकार
उस्ताद अलाउद्दीन खां का तो उदय शंकर और अल्मोड़ा के उस स्कूल से खास अनुराग था. अपने छोटे भाई रविशंकर को बाबा अलाउद्दीन खां के पास उदय शंकर ही लेकर गए थे.
उदय शंकर ने काफी समय यूरोप में बिताया था. इसलिए उन्हें अपने डांस स्कूल के लिए यूरोप से काफी आर्थिक सहायता मिलती थी. लेकिन जब यूरोप में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ा तो हालात काफी बिगड़ गए. यूरोप से आ रही मदद बंद हो गई. स्कूल भी बंद होने की कगार पर पहुंच गया. उदय शंकर मद्रास चले गए.
अल्मोड़ा का स्कूल बंद होने के बाद जो लोग उससे जुड़े थे, वे सब इप्टा में काम करने लगे. उदय शंकर का भी इप्टा के साथ लंबे समय तक काफी जुड़ाव रहा. उन्होंने इप्टा की तरफ अपने बैले ग्रुप के साथ मुंबई में मजदूरों के लिए शो किए. इप्टा के लिए कई नृत्य नाटकों का निर्देशन किया. इप्टा का प्रसिद्ध नृत्य नाटक ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया’ और ‘इंडिया इम्मॉर्टल’ उदयशंकर की की गहरी छाया थी.
अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे कोलकाता जाकर बस गए थे, जहां उन्होंने उदय शंकर नृत्य केंद्र की शुरुआत की थी. संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें अपने सर्वोच्च पुरस्कार ‘संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप’ से सम्मानित किया. वर्ष 1971 में भारत सरकार ने उन्हें दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से नवाजा. विश्वभारती ने उन्हें ‘देशी कोत्तम’ सम्मान दिया.
उदयशंकर ने 1948 में एक हिंदी फ़िल्म भी बनाई थी. नाम था- ‘कल्पना’. इस फिल्म में उन्होंने अपनी पत्नी अमला शंकर के साथ अभिनय किया था. भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह अपनी तरह की अनूठी फिल्म थी, जो नृत्य पर आधारित थी. फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो बहुत सफल नहीं रही, लेकिन राज कपूर, सत्यजित राय, बिमल रॉय सरीखे इस विधा के पुरोध उस फिल्म के बड़े प्रशंसक थे.
26 सितंबर, 1977 को 76 वर्ष की आयु में कोलकाता में उदय शंकर का निधन हो गया.
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