धर्मनिरपेक्षता पर की जानेवाली अदूरदर्शी बहसें साम्प्रदायिक सद्भाव की पहल को पटरी से उतारती हैं – TV9 Bharatvarsh

| Edited By: सुष्मित सिन्हा
Apr 19, 2022 | 1:25 PM
टीवी 9 की वेबसाइट पर 13 अप्रैल को मशहूर पत्रकार बॉबी नकवी का एक आलेख छपा था. उनके आलेख को पढ़कर कम से कम ये तो कहा ही जा सकता है कि वह किसी भी तरह से बहुसंख्यक समुदाय के एक बड़े वर्ग की अंतरात्मा को झकझोर नहीं पाया होगा. उनके आलेख के मुताबिक मुसलमानोंके पास अब कुछ ही विकल्प रह गए हैं और उनमें से एक है कि क्या मुसलमानों को बीजेपी (BJP) को ही एक नई कांग्रेस (Congress) के रूप में देखना चाहिए? अपने आलेख में नकवी ने सरकार, मीडिया, अदालतों, प्रशासन और बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार किया. लेकिन इस क्रम में ऐसा लगाता है कि नकवी ने आंकड़ों और वास्तविक मिसालों के साथ मुद्दे को पेश करने का मौका गंवा दिया. ये एक हकीकत है कि नकवी का आलेख यहां छपा और यह इस बात की तस्दीक करता है कि भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया संस्कृति (Independent Media) अभी भी मौजूद है. फिर भी नकवी का आलेख खंडन नहीं तो जवाब का हकदार तो है ही.
बहुसंख्यक समुदाय इस तरह की आलोचना के लिए न तो अब संवेदनशील है और न ही किसी भी सुधार के सुझावों को मानने के लिए तैयार है. बल्कि, वे इस तरह की आलोचनाओं से बेफिक्र हैं. इसका कारण यह नहीं है जो सोशल मीडिया में चल रहा है कि बहुसंख्यक समुदाय के मतदाताओं पर आलोचना का असर नहीं पड़ता है. समाज के विभिन्न वर्गों से पूछें तो आपको सही जवाब मिलेगा. कोई उनके साथ सहमत हो सकता है और कोई नहीं भी हो सकता है. बहरहाल उनका तर्क है कि यदि पूरे बहुसंख्यक समुदाय को जानबूझकर एक आदिकालीन लुटेरों के रूप में पेश किया जाए तो सह-अस्तित्व पर किसी भी संवाद का दरवाजा बंद हो सकता है.
इस संदर्भ में नकवी का आलेख न तो संवाद शुरू करने की कोशिश करता है और न ही उस क्षेत्र पर प्रकाश डालता है जिसे मानवविज्ञानी, समाजशास्त्री, या पत्रकारों ने आज तक छुआ नहीं है. वह Moderate Value System” (‘मध्यम मूल्य प्रणाली’) जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जो कि बहस में किसी तरह की स्पष्टता नहीं लाता बल्कि अधिक भ्रमित ही करता है. विडंबना यह है कि भारत में मुसलमानों की दुर्दशा और समाज में हो रहे ध्रुवीकरण के बारे में उनकी चिंता समाज में और अधिक दरार पैदा कर सकती है.
नकवी के कटाक्ष के निशाने पर सभी हैं- बहुसंख्यक समुदाय, बुद्धिजीवी, प्रशासन, मीडिया, अदालत और न्यायाधीश. हिजाब मामले का जिक्र करते हुए उनका कहना है कि अदालत ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बरकरार रखने की भी इजाजत नहीं दी. स्कूल यूनिफॉर्म मामले में अदालत ने कुछ सिद्धांतों के आधार पर फैसला सुनाया था. और ये एक ऐसा उदाहरण था जो स्पष्ट रूप से दिखाता है कि नकवी भारत में हो रहे हाल के घटनाक्रम का अध्ययन नहीं कर रहे थे. वे शायद ये सोच रहे होंगे कि कर्नाटक में हिजाब पर पाबंदी लगा दी गई है जो तथ्यात्मक रूप से सरासर गलत है. दरअसल, सिर्फ स्कूल की कक्षाओं में हिजाब की अनुमति नहीं है.
नकवी की तरह बहुत सारे स्तंभकार इस मुद्दे पर बहस करते हैं लेकिन उनकी दलीलों में एक अंतर्निहित दोष होता है जो काफी कमजोर होता है. इन दलीलों से समस्या ही पैदा होती है या फिर वे नाकामयाब हो जाते हैं. भारत में कहीं भी मुसलमानों पर हमले की किसी भी रिपोर्ट पर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती है. एक, ‘धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा’ सिद्धांत को आगे बढ़ाने वाले बुद्धिजीवी. दूसरा, बुद्धिजीवियों के इसी समूह के लोग सांप्रदायिक सद्भाव की सफल कहानियों को सामने लाते हैं और कहते हैं कि लोग तो एक साथ रहना चाहते हैं लेकिन राजनेता समाज में विघटन चाहते हैं. तीसरा, किसी घटना के मद्देनज़र ये भविष्यवाणी करने की कोशिश की जाती है कि भारत में मुसलमानों के रहने के लिए अब बेहद गंभीर माहौल बन चुका है.
आइए, सबसे पहले हम धर्मनिरपेक्षता पर बात करते हैं. इस बात से कोई सहमत हो या न हो, लेकिन यह हकीकत है कि लोग धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को आसानी से नहीं समझ सकते. धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को कानून और व्यवस्था के कार्यान्वयन से जोड़ा जाना चाहिए. तब लोग धर्मनिरपेक्षता की विशेषताओं को वास्तविक रूप में समझ सकते हैं. दूसरा, साम्प्रदायिक सद्भाव की सफल कहानियों की एक हद होती है. यह सद्भावपूर्ण माहौल में रहने वाले लोगों को समझाने का प्रयास करती है कि वो और अधिक सामंजस्यपूर्ण और सद्भावपूर्ण रहें. लेकिन, कानून अपने हाथ में लेने वाले लोगों को सांप्रदायिक सद्भाव की कहानियां रोक नहीं पाती हैं. इसलिए, यह दोनों तरफ के असमाजिक तत्वों में किसी तरह की सुधार नहीं ला सकता.
दूसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है कि जो लोग सांप्रदायिक तनाव पैदा करते हैं वे इसी तरह का अपराध करते रहेंगे. वहीं कानून का पालन करने वाले नागरिकों को अशांत माहौल में भी सांप्रदायिक सद्भाव की कहानियों से प्रेरणा लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है. बहरहाल, धर्मनिरपेक्षता का कानूनी व्याख्या किया गया है और यह प्रत्येक नागरिक के लिए बाध्यकारी है. लेकिन फिर भी धर्मनिरपेक्षता की निरंतरता और सफलता को केवल बहुसंख्यक समुदाय के आचरण से जोड़ने की लगातार कोशिश होती रही है. यह बुद्धिजीवियों के शरारती स्वभाव पर एक दुखद टिप्पणी है. ऐसा लगता है कि यह तर्क मूल रूप से एक अवधारणा पर बनाया गया है कि उच्च प्रतिशत आबादी वाला बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों पर अपराध कर सकता है जबकि कम प्रतिशत वाले अल्पसंख्यक लोग बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ कभी भी अपराध नहीं कर सकते हैं.
पहले यह गलत साबित हो चुका है. अल्पसंख्यक समुदाय की आबादी किसी राज्य में कम और किसी राज्य में अधिक हो सकती है. और जहां उनकी आबादी ज्यादा होगी वहां वे कानून को अपने हाथों में लेकर “हेट क्राइम्स” को अंजाम दे सकते हैं. ऐसी परिस्थिति में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों की रक्षा सबसे पहले किसे करनी है? तीसरा मुद्दा उन कोशिशों से संबंधित है जिसके तहत बहुसंख्यक समुदाय द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाए जाने और पूरे देश में सांप्रदायिक घटना को लेकर काफी गंभीर तस्वीर पेश की जाती है.
हम केरल पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं क्योंकि इस दक्षिणी राज्य में आरएसएस काफी मजबूत है और कोई ये दलील दे सकता है कि केरल में आरएसएस हिंसक है. तो चलिए पश्चिम बंगाल का मामला लेते हैं. पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल में कभी भी बीजेपी का शासन नहीं रहा है और जो आंकड़े हमारे पास हैं उनके मुताबिक पश्चिम बंगाल में आरएसएस की पैठ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है. क्या इसका मतलब यह समझा जाए कि पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक ताकतें कभी मौजूद ही नहीं थीं? नकवी जैसे बुद्धिजीवी इस बात का समर्थन कर सकते हैं जबकि हकीकत कुछ और ही बयां करती है. नकवी और उनके दोस्त उस राज्य के इतिहास को आसानी से भूल जाते हैं जिसका शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का खराब ट्रैक रिकॉर्ड रहा है. इसलिए, किसी एक घटना के आधार पर भविष्य के बारे में एक सामान्य सा बयान दे देना वास्तविक तस्वीर नहीं पेश करती है. आदर्श रूप से तो प्रत्येक इलाके या जिले में एक इकाई होनी चाहिए जो वहां के सांप्रदायिक दंगों का अध्ययन करे.
नकवी ने अपने आलेख में हालिया विधानसभा चुनावों में मुसलमानों के समाजवादी पार्टी के साथ होने का जिक्र किया है. नकवी को इसमें कोई दोष नहीं लगता जबकि वो इस बात से नाराज हैं कि बीजेपी अपने मूल वोट को एकजुट रखने के लिए मुसलमानों को निशाने पर रखती है. नकवी का कहना है कि इसे हासिल करने के लिए बीजेपी हर चुनाव में हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करती है. नकवी ने जिस तरह चुनावी राजनीति का वर्णन किया है उसके आधार पर हम ध्रुवीकरण को अलग-अलग हिस्सों में बांटने के लिए प्ररित होते हैं: एक ‘अच्छा ध्रुवीकरण’ है और दूसरा ‘बुरा ध्रुवीकरण’ है. वोटों का ध्रुवीकरण करना बुरा है क्योंकि जो पार्टी ऐसा करती है वह न केवल हिंदू वोटों की रक्षा को प्राथमिकता देती है बल्कि बहुसंख्यक समुदाय के असामाजिक तत्वों के कुकृत्यों को छिपाने की कोशिश भी करती है. यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है. ठीक?
यही बात उन पार्टियों के लिए भी कही जा सकती है जो अल्पसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण करती हैं. यूपी विधान-सभा चुनाव के बाद के विश्लेषणों के दौरान ये चर्चा छिड़ गई कि समाजवादी पार्टी कथित तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय के गुंडों को बचाती रही है. नतीजतन, मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का अखिलेश यादव की पार्टी पर भरोसा नहीं रहा. कोई यह तर्क दे सकता है कि चुनाव के दौरान अखिलेश यादव मुख्यमंत्री नहीं थे इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय के ध्रुवीकरण की उनकी कोशिश उतनी घातक नहीं हो सकती है. यह वास्तविकता को गलत तरीके से देखने के समान होगा.
समाज के सभी वर्गों से बातचीत करने के बाद एक साफ तस्वीर सामने आएगी. ये पता चलेगा कि कैसे सत्ता में रहते हुए सपा कार्यकर्ताओं ने कथित रूप से ज्यादतियां की थीं. शायद, यह एक कारण हो सकता है कि राष्ट्रीय लोक दल के मतदाताओं ने हाल के विधानसभा चुनावों में सपा उम्मीदवारों का समर्थन नहीं किया हो. अगर आम मतदाता आज भी सपा को सत्ता सौंपने से डरता है तो कोई कल्पना कर सकता है कि 2012 में सपा ने किस तरह का ध्रुवीकरण किया होगा. नकवी और दूसरे लोगों को समाज के विभिन्न तबकों से संवाद करना चाहिए तभी वे ध्रुवीकरण जैसे सामाजिक मुद्दों की जटिलता को समझ पाएंगे.
मैं यहां एक वास्तविक वाकया बताना चाहता हूं. हाल ही में एक व्यक्ति को दूसरे समुदाय के तीन लोगों ने चाकू मार दिया. पीड़ित की अस्पताल में मौत हो गई. बिना समय गंवाए कुछ ही देर में विपक्षी विधायक, जिनके निर्वाचन क्षेत्र में यह घटना हुई, पीड़ित के घर गए और मोटी रकम अदा की. यह दुखी परिवार को मदद करने की एक ईमानदार कोशिश लग रही है. लेकिन, अगर हम इसकी गहराई में जाएं तो इस घटना की जटिलता का अंदाजा लगाया जा सकता है. विधायक की मदद दो तरह से काम कर सकती है. एक, जब हत्या का मामला सुनवाई के लिए आता है तो पीड़ित का परिवार पलट सकता है. दूसरा, आर्थिक मदद देकर विधायक ने हमलावरों को बचाने का प्रयास किया होगा यदि वे उनके करीबी सहयोगी हैं. अगर वे उनके समर्थक नहीं हैं तो इस कदम से तीनों आरोपी रास्ते पर आ जाएंगे.
यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि समुदायों का ध्रुवीकरण करने और राजनीतिक फसल काटने के लिए सत्ता में होने की आवश्यकता नहीं है. ध्रुवीकरण का घातक प्रभाव कई तरह से सामने आता है. नकवी जैसे कई लोग जिस बारे में बात नहीं करते हैं वो है देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही प्रथाएं जो बहुत कुछ कहती हैं. बेंगलुरु सहित भारत के कई हिस्सों में एक अलिखित नियम क्यों हैं? इस अलिखित नियम के मुताबिक शुक्रवार को हेलमेट नियम में ढील दी जाती है और दोपहिया वाहनों को दो नहीं बल्कि तीन सवारों के साथ चलने की अनुमति होती है?
फिर अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में एक खास समुदाय के अधिकारियों की तैनाती क्यों होती है? एक तरह से यह गलत नहीं है क्योंकि इससे प्रशासन को अल्पसंख्यक लोगों का विश्वास जीतने में मदद मिल सकती है. यह प्रथा युगों से चली आ रही है. इसका किसी ने विरोध नहीं किया. दूसरे, इस तरह की रियायत सत्ताधारी दल के प्रति किसी भी तरह की दुर्भावना को दूर करने में मदद कर सकती है. हालांकि, यह बहुसंख्यक समुदाय के अंदर कानून का पालन करने वाले लोगों के दिलो-दिमाग में उल्टा प्रभाव डाल सकता है. इसके अलावा उन लोगों का मोहभंग हो जाता है जो कानून का पालन करते हैं क्योंकि उन्हें नियमों का पालन करने के बदले में ऐसा कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है. इस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता कुल जमा शून्य के खेल पर समाप्त हो जाएगी.
इसलिए, भारतीय बुद्धिजीवियों को धर्मनिरपेक्षता पर बहस की शुरुआत मजबूत आंकड़ों के साथ करनी चाहिए. उन्हें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ये सोचना चाहिए कि समाज में कैसे कानून और व्यवस्था को लागू किया जाए और यही सोच समाज को धर्मनिरपेक्ष बनाएगी. दोनों खेमों में वाद-विवाद हो और फिर तमाम नुकसान, विडंबनाओं और समस्याओं को लेकर एक स्वीकारोक्ति भी हो, तभी हमें एक मजबूत कानून और व्यवस्था कार्यान्वयन तंत्र के पुनर्निर्माण में मदद मिल पाएगी. हमेशा से ही हमने जब भी धर्मनिरपेक्षता को लागू करने के बारे में बहस की है तो हमने पहलेसरकार वाला दृष्टिकोण अपनाया है.
लेकिन ऐसा लगता है कि यह तरीका विफल हो गया है. सरकारी तंत्र को महज एक सहायक की तरह काम करना चाहिए. इसलिए, जनता की समस्याओं और आशंकाओं पर पहले बहस की जा सकती है ताकि एक मजबूत कानून और व्यवस्था तंत्र स्थापित की जा सके. इससे हमें संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता हासिल करने में मदद मिल सकती है. अदालतों, मीडिया और प्रशासन को फटकार लगाने से किसी की मदद नहीं होगी और न ही इस ज्वलंत मुद्दे का समाधान ही निकाला जा सकेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और TV9 कन्नड़ डिजिटल के एडिटर हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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