कहानी आम की: अबुल फज़ल की 'आईने-अकबरी' से लेकर वात्स्यायन के कामसूत्र तक – BBC हिंदी

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इस बात की कल्पना करना भी मुश्किल लगता है कि आम के बग़ैर भारतीयों की गर्मियां कैसे कटतीं. कैसी भी कड़ी लू चल रही हो, कच्ची अमियों से लदे आम के पेड़ों की घनी पत्तियों के बीच छिपी कोयल अपना गाना बंद नहीं करती है.
उसका गाना आश्वस्त करता है कि हर शाम डूबने से पहले सूरज अपना रंग हौले-हौले उन कच्चे फलों के भीतर भर रहा होगा.
आम पकने के मौसम में उसका गूदा शीतल सूर्यास्त के रंग का हो चुका होगा और उनकी आत्मा में कोयल की वाणी की मिठास भर गई होगी.
आम हमारे देश की स्मृति का हिस्सा है. आम के पहले बौर से लेकर उसकी गुठली तक उसका कोई हिस्सा नहीं जो कहावतों-लोक कथाओं-कविताओं और किस्सों का विषय न बन गया हो.
आम पन्ना, अमचूर, अचार, चटनी, आमपट्टी जैसी चीज़ों के बगैर हमारी रसोइयां किस कदर नीरस होतीं!
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बंगाल का नवाब मुर्शिद जफ़र ख़ान 1704 में अपनी राजधानी को ढाका से मुर्शिदाबाद ले गया था.
आम से विशेष अनुराग रखने वाले इस नवाब और उसकी संततियों ने अगले कई दशकों तक अपने बगीचों में आम की तमाम नई प्रजातियां विकसित कीं.
इन्हीं में से एक नवाब हुसैन अली मिर्ज़ा बहादुर के बगीचे में उगने वाले कोहे-तूर नाम के आम की कहानी यह है कि एक यूनानी हकीम आगा मोहम्मद ने उसे सबसे पहले उगाया.
कोहे-तूर का फल इतना सुडौल और स्वादिष्ट था कि जब हकीम साहब उसकी एक टोकरी नवाब साहब के पास तोहफ़े के बतौर लेकर गए तो नवाब ने पूरे के पूरे पेड़ की माांग कर डाली.
समूचा पेड़ उखाड़ कर नवाब के बगीचे में लगाया गया, हकीम आगा को मुआवज़े के दो हजार रुपये दिए गए और कोहे-तूर को सिर्फ़ नवाबों के लिए सीमित कर दिया गया.
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दो देश,दो शख़्सियतें और ढेर सारी बातें. आज़ादी और बँटवारे के 75 साल. सीमा पार संवाद.
बात सरहद पार
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'अ ट्रीटीज़ ऑन मैंगो'
ये वाकया आज से सवा सौ साल पहले यानी 1897 में प्रबोध चन्द्र नाम के एक उद्यान-विशेषज्ञ द्वारा लिखी गई किताब 'अ ट्रीटीज़ ऑन मैंगो' में दर्ज है. प्रबोध चद्र मुर्शिदाबाद के निज़ामत गार्डन्स के सुपरिटेंडेंट हुआ करते थे.
इस महत्वपूर्ण पुस्तक में उस ज़माने के मुर्शिदाबाद में उगने वाले आमों की विस्तृत सूची है जिसमें अली बख्श, बीरा, बिजनौर सफ-दा, दो-अंटी, दूधिया, काला पहाड़, खानम पसंद और नाज़ुक बदन जैसा कुल एक सौ तीन प्रजातियों का ज़िक्र है.
किताब के अंतिम हिस्से में मालदा में उगवने वाली आम की पचास प्रजातियों के अलावा दरभंगा, जियागंज, बंबई, गोवा, मद्रास, मैसूर, जयनगर और हाजीपुर के आमों की लिस्ट भी दी गई है.
मुर्शिदाबाद के आम के बागानों के साथ एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी जुड़ा हुआ है कि 1757 की प्लासी के युद्ध के दौरान रॉबर्ट क्लाइव की फ़ौज ने अपना पड़ाव मुर्शिदाबाद से तीस मील दूर आम के एक विशाल बगीचे में ही डाला था.
लिखे को सबूत मानें तो भारतीय उपमहाद्वीप में पिछले चार हज़ार सालों से आम खाया जा रहा है. वाल्मीकि रामायण में सीता की खोज में निकले हनुमान रावण की लंका में स्थित अशोक वाटिका के आम्र-कानन वाले हिस्से में पहुंच जाते हैं.
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गौतम बुद्ध के चमत्कारों से लेकर श्रीलंका में पत्तिनिहेला की लोकगाथाओं तक और ज्योतिषशास्त्र की गणनाओं से लेकर वात्स्यायन के कामसूत्र तक आम का ज़िक्र मिलता है.
पत्तिनिहेला के मुताबिक़, तो सुन्दर स्त्रियों की उत्पत्ति आम के फल के भीतर से हुई थी. कालिदास के यहां बिना आम और बौरों के आधी उपमाएं पूरी नहीं होतीं.
कालीदास उसे वसंत के पांच बाणों में एक बतलाते हैं. ह्वेन सांग और इब्न बबूता के यात्रा वृतांतों में आम के बारे में लिखा गया है.
अबुल फज़ल की 'आईने-अकबरी' के हवाले से बताया जाता है कि अकबर और जहांगीर के शासनकाल के दरम्यान हुसैन नाम का एक हकीम था जिसके बगीचे में आमों की अनेक प्रजातियां उगाई जाती थीं.
उसकी इस खूबी से प्रसन्न होकर उसे पहले आगरा और बाद में बिहार का गवर्नर बना दिया गया.
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साल 1539 में मुग़ल बादशाह हुमायूं को परास्त करने के बाद शेरशाह सूरी ने अपने प्रिय आम को उस जगह का नाम दिया जहां उसे विजय हासिल हुई थी. इस तरह चौसा को अपना नाम मिला.
भारतीय उपमहाद्वीप के चप्पे-चप्पे में जनसाधारण से लेकर बादशाहों तक के भीतर आम को लेकर जिस तरह का ऑब्सेशन पाया जाता है, उसके मद्देनज़र इस तथ्य से ज़रा भी हैरानी नहीं होती कि हर इलाक़े के अपने आम हैं और उनसे जुड़ी कहानियां हैं.
साल 1498 में कलकत्ते में उतरे पुर्तगाली नाविकों ने जब पहली दफ़ा आम को चखा तो उसके स्वाद का उन पर ऐसा जादू चला कि उन्होंने इस अद्वितीय फल को दुनिया भर में ले जाने का फ़ैसला किया.
नतीजतन सोलहवीं शताब्दी में भारत का आम ब्राज़ील पहुंच चुका था. वेस्ट इंडीज़ में एक ख़ास आम की प्रजाति सबसे अधिक चलती है – नंबर 11.
इसकी कहानी यूं है कि 1782 में जमैका के तट पर अंग्रेजों द्वारा एक फ्रांसीसी जहाज़ पर कब्ज़ा कर लिया गया. जहाज़ में मसाले और आम लदे हुए थे.
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लूट के आम खाए गए और एक नज़दीकी गिरजाघर के बगीचे में उसके बीज बो दिए गए. बीजों से उगे पौधों को संख्याएं आवंटित की गईं.
उन सैकड़ों पौधों में से केवल एक ही बच सका. इस तरह ग्यारह नंबर आम अस्तित्व में आया. क़रीब सौ साल बाद भारत से आम की क़रीब दो दर्जन अन्य प्रजातियां जमैका ले जाई गईं.
बीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश फौजियों के बीच एक शब्द लोकप्रिय हुआ – टॉमी एटकिन्स.
किसी भी औसत, बेचेहरा और मामूली लगने वाले सिपाही को इस नाम से पुकारा जाता था. पहला विश्वयुद्ध ख़त्म होने के बाद अमेरीका के फ्लोरिडा में उगने वाली आम की एक प्रजाति को टॉमी एटकिन्स का नाम दिया गया.
लम्बी शेल्फ़ लाइफ़ के चलते इस साधारण प्रजाति का ऐसा प्रसार-प्रचार हुआ कि आज अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड में खाए जाने वाले आमों का कुल 80 फीसदी टॉमी एटकिन्स होता है. कितनी उबाऊ बात है!
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भारत में उगाए जाने वाले आमों के नामों के साथ ऐसा नहीं है.
हमारे यहां सफे़दा, चुस्की, दशहरी, कलमी, चौसा जैसे स्थानीय नामों के अलावा उनके कितनी तरह के दिलफरेब नाम पाए जाते हैं – मधुदूत, मल्लिका, कामांग, तोतापरी, कोकिलवास, ज़रदालू, कामवल्लभा.
अनुमान है भारत में आम की डेढ़ हज़ार से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं. पिछली कई शताब्दियों में हमारे देश में आम की प्रजातियों की विविधता लगातार बढ़ती गई है.
हमारे यहां भौगोलिक परिस्थिति, मिट्टी और आबोहवा की जिस तरह की विविधता उपलब्ध है, उससे क्रॉस-ब्रीडिंग में आसानी होती है. आम के मामले में जितना मानवीय श्रम और कौशल लगाया गया है उससे कहीं ज्यादा मोहब्बत लगी है.
रोहिल्लों और लखनवी नवाबों के संरक्षण में दशहरी आम उगा. कोई तीन सौ बरस पहले काकोरी के नज़दीक दशहरी गांव में मोहम्मद अंसार जैदी के बगीचे में उगे इस आम ने लखनऊ को एक अलग पहचान दी.
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ठीक जिस तरह बनारस को लंगड़े के लिए जाना जाता है. उत्तर प्रदेश के मेरठ-मुज़फ्फरनगर और उत्तराखंड के रामनगर-हल्द्वानी के इलाके पिछले कुछ दशकों से अपने आमों की वजह से जाने जाने लगे हैं.
यह सूची महाराष्ट्र के रत्नागिरी और अलफांसो, आांध्र के बैगनपल्ली और इमामपसांद और जूनागढ़ के केसर के बग़ैर अधूरी रहेगी.
सच तो यह है कि हम भारत में उगने वाले उत्कृष्ट आमों की कोई अंतिम सूची बना ही नहीं सकते हैं. कोई न कोई नाम हर बार छूट जाएगा.
आम को असल मोहब्बत आधुनिक उर्दू शायरों ने की. मिर्ज़ा ग़ालिब का आम-प्रेम और आम न खाने वालों की गधे से बराबरी करने वाला वह किस्सा सबने सुना है.
बताते हैं गर्मियों के उरूज पर मिर्जा ग़ालिब की खस्ताहाल हवेली का सहन दारू की खाली बोतलों और आम की गुठलियों से भर जाया करता.
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सबसे पहली बात तो यह कि आम के साथ सामूहिकता और यारी-दोस्ती हमेशा जोड़कर देखी जाती रही. जिनके घर आम होते थे वे दूसरों के घर आम भेजते थे. फिर ये दूसरे वाले पहले के घर वापस आम भिजवाते.
पहले के यहां दशहरी का बाग़ था, दूसरों के यहां चौसे का. शहरों के बीच की दूरियां मायने नहीं रखती थीं. किस्सा है कि अकबर इलाहाबादी ने अल्लामा इक़बाल के लिए आम भिजवाए.
वह भी अपने नगर से साढ़े नौ सौ किलोमीटर दूर लाहौर. उस ज़माने में सड़क के रास्ते थे और आने-जाने के साधन बहुत कम.
आम सलामत पहुंचे तो चचा ने शेर लिखा –
असर ये तेरे अन्फ़ासे मसीहाई का है अकबर,
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुंचा
यानी तूने आमों के ऊपर अपनी मसीहाई का ऐसा मंत्र फूंका कि माल बिना खराब हुए आराम से ठिकाने पर पहुंच गया.
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यही अकबर अपने एक दोस्त से किस बेशर्मी से आम माांग भी लेते थे –
नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूं
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए
मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए
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शायरों के बीच आम की इतनी विविधताओं के बीच जिस नाम ने खूब नाम हासिल किया वह था लंगड़ा. ऐसा इसलिए हुआ कि इस शब्द के दो मायने निकलते हैं. तभी तो साग़र ख़य्यामी ने कहा –
आम तेरी ये ख़ुश-नसीबी है
वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है
भारतीय इतिहास में तैमूर लंग को उसके पैरों के दोष के कारण अधिक, अपने कारनामों के लिए कम ख़्याति मिली. कहते हैं उसने नाम के चलते इस स्वादिष्ट आम का अपने महल में प्रवेश बंद करवा रखा था. शायरी ने इसे यूं दर्ज किया –
तैमूर ने कस्दन कभी लंगड़ा न मंगाया
लंगड़े के कभी सामने लंगड़ा नहीं आया
आमों का मौसम आता है तो मेरे बेहद क़रीबी और फलों के क़ारोबारी असग़र अली कोई तीन माह तक मुझे एक से बढ़कर एक तमाम तरह के आम चखाते हैं. पहले सफेदा लाते हैं फिर उसके दो-एक हफ़्ते बाद कलमी.
दशहरी, लंगड़ा, चौसा वगैरह से होता हुआ यह क्रम आम्रपाली, तोतापरी, बम्बइया और मल्लिका तक चलता है.
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लखनऊ से हर साल मेरे लिए मलीहाबादी दशहरी की पेटी लेकर आने वाले मेरे एक दोस्त अक्सर एक शेर सुनाते हैं –
उठाएं लुत्फ़ वो बरसात में मसहरी के
जिन्होंने आम खिलाये हमें दशहरी के
खुद अपने लिए कोई आदमी इससे बड़ी दुआ क्या करेगा!
आम को उसके रंग, आकार, महक और स्वाद से परे समझने के लिए जोशुआ काडीसन की किताब – 'आम
खाने के सत्रह तरीके'-उल्लेखनीय है.
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जे. नाम के एक युवा वनस्पतिशास्त्री को उसकी मल्टीनेशनल कम्पनी एक सुदूर द्वीप में भेजती है. कम्पनी वहां वहां आमों की पैकिंग करने के लिए एक कारखाना लगाने की सोच रही है. जे. को उसी बारे में एक रिपोर्ट तैयार करनी है.
द्वीप में सांयोगवश उसकी मुलाक़ात एक साधु से होती है जो उसे आम के माध्यम से जीवन का वास्तविक अर्थ बताता है.
किताब के एक हिस्से में साधु उससे आम चखने को कहता है. वह उससे कहता है कि उसने आम के साथ उन सारी चीज़ों को चखने की कोशिश करनी चाहिए जिनसे आम बना है – बौर, पेड़ का तना, पत्तियां, जड़ें, मिट्टी, धूप और गर्मियां.
जे. आाँखें बंद कर ऐसा करने की कोशिश कर ही रहा होता है कि साधु आगे कहता है
– "यह भी महसूस करो कि किस जगह आम ख़त्म हो रहा है और आसमान शुरू हो रहा है."
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