समान नागरिक संहिता : क्या केवल कागजों पर बनी रहेगी – Punjab Kesari

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धर्मनिरपेक्षता हिन्दुत्व ब्रिगेड के लिए हमेशा से एक नर पिशाच और राजनीतिक अस्पृश्य बना रहा है जो कांग्रेस का प्रिय शब्द रहा है जिसके चलते राम और रहीम चुनावी मुद्दे बन गए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय

धर्मनिरपेक्षता हिन्दुत्व ब्रिगेड के लिए हमेशा से एक नर पिशाच और राजनीतिक अस्पृश्य बना रहा है जो कांग्रेस का प्रिय शब्द रहा है जिसके चलते राम और रहीम चुनावी मुद्दे बन गए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा विवादास्पद एक समान नागरिक संहिता पर बल देने से इन बातों को पीछे छोड़ना होगा। न्यायालय ने भारत के विविध सामाजिक ताने-बाने को एक राष्ट्र में जोडऩे के लिए इस एक समान नागरिक संहिता पर बल दिया है। 

पिछले सप्ताह मीणा समुदाय से जुड़े हुए पक्षकारों के एक मामले का निपटारा करते हुए कहा गया कि क्या यह समुदाय हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के दायरे से बाहर है? न्यायालय ने अपने आदेश में कहा, ‘‘आधुनिक भारतीय समाज धीरे-धीरे एकजुट हो रहा है। धर्म, समुदाय और जाति की परंपरागत दीवारें धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं। 

संविधान के अनुच्छेद 44 में व्यक्त की गई यह आशा कि राज्य अपने नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास करेगा केवल एक आशा बनी नहीं रहनी चाहिए।’’ विभिन्न समुदायों, जातियों, जनजातियों और धर्मों के भारतीय विवाहों को विवाह और तलाक के संबंध में विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों के टकराव के कारण संघर्ष करने से बचाना होगा। 

न्यायालय का यह निर्णय मोदी सरकार के लिए कर्णप्रिय है क्योंकि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने तीन मु य मुद्दों को पूरा कर दिया है जो 1998 के उसके घोषणा पत्र में घोषित किए गए थे जिनमें से पहला राम मंदिर का निर्माण और दूसरा जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त करना है और अब उसके मुख्य मुद्दों में केवल एक बचा है और वह है एक समान नागरिक संहिता को लागू करना।

मोदी और अमित शाह दोनों इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि किसी भी देश में धर्म के आधार पर कोई कानून नहीं होना चाहिए और सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून होना चाहिए। तब तक देश में लैंगिक समानता नहीं हो सकती जब तक ऐसी एक समान नागरिक संहिता न हो जो सभी महिलाओं के अधिकारों का संरक्षण करे। इस संबंध में सभी लोगों में आम सहमति बननी चाहिए जो उनकी गलतफहमियों और चिंताओं को दूर कर सके और उसके बाद ही एक समान नागरिक संहिता को लागू किया जाना चाहिए। 

एक वरिष्ठ मंत्री के अनुसार, ‘‘दशकों पुरानी समस्याएं 70 वषों से लंबित पड़ी समस्याओं को यकायक दूर नहीं किया जा सकता है। उन्हें किस्तों में भी पूरा नहीं किया जा सकता है। कुछ लोगों की इस गलतफहमी को दूर करने का प्रयास करना होगा और कुछ लोगों ने लोगों को उकसाया है कि एक समान नागरिक संहिता उनके धार्मिक कर्मकांड और प्रथाआें के विरुद्ध है। यह लैंगिक न्याय प्राप्त करने का एक वैज्ञानिक और आधुनिक तरीका है जो विचारधारा के आधार पर व्याप्त विरोधाभासों को दूर कर राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बढ़ावा देगा। किंतु विपक्षी दलों द्वरा इसका पुरजोर विरोध किया गया है। 

उनका मानना है कि एक समान नागरिक संहिता धार्मिक स्वतंत्रता और विभिन्न धार्मिक समूहों के व्यक्तिगत कानूनों के मामले में हस्तक्षेप करेगा और जब तक धार्मिक समूह बदलाव के लिए तैयार न हो तब तक एेसा नहीं किया जाना चाहिए। यह अल्पसंख्यक बनाम बहुसं यक का मुद्दा है और भारत में रह रहे मुसलमानों के लिए हिन्दुत्व ब्रिगेड की नीति है। उनका कहना है कि मोदी राज में भारत में धर्मनिरपेक्षता खतरे में है। 

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी इस पर आपत्ति की है। उसका कहना है कि भारत एक बहु-सांस्कृतिक, बहु धार्मिक समाज है और प्रत्येक समूह को अपनी पहचान बनाए रखने के लिए संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं। एक समान नागरिक संहिता भारत की विविधता के लिए खतरा है। प्रश्न उठता है कि आखिर एक समान नागरिक संहिता में ऐसा क्या है जिसके चलते हिन्दुत्व ब्रिगेड को छोड़ कर अन्य राजनीतिक दल इसे खतरे के रूप में देखते हैं। अनुच्छेद 44 में केवल कहा गया है, ‘‘राज्य भारत के संपूर्ण प्रादेशिक भूभाग पर अपने नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास करेगा।’’ 

इस अनुच्छेद में केवल यह कहा गया है कि एक संख्य समाज में धार्मिक और व्यक्तिगत कानूनों के बीच आवश्यक नहीं कि संबंध हो। प्रश्न उठता है कि एक समान नागरिक संहिता को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में अतिक्रमण के रूप में क्यों देखा जाता है या इसे अल्पसं यक विरोधी क्यों माना जाता है। यदि हिन्दू व्यक्तिगत कानून का आधुनिकीकरण किया जा सकता है, परंपरागत ईसाई प्रथाओं को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है तो फिर मुस्लिम व्यक्तिगत कानून को धर्मनिरपेक्षता की खातिर पवित्र क्यों माना जाता है?

इन सबसे प्रश्न उठता है कि क्या राज्य जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव करेगा? एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में ऐसा कभी नहीं हो सकता है। हमारी हर सरकार राजनीति, जाति और धर्म के बीच लक्ष्मण रेखा खींचने में विफल रही है। राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के बारे में कोई रहस्य नहीं है। 

यह न तो भगवान विरोधी है और न ही भगवान समर्थक है और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सभी धर्मों और सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करे और यह सुनिश्चित करे कि धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो। फिर इस समस्या का समाधान क्या है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या सरकार विभिन्न तरह के वादों के बोझ से मुक्त होना चाहती है। न्यायालय ने एक बार फिर से रास्ता दिखा दिया है। अब सरकार इस संबंध में कदम उठा सकती है।-पूनम आई. कौशिश   
 
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